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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् तं बिन्तम्मापियरो, सामण्णं पुत्त ! दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्साई, धारेयव्वाइं भिक्खुणा ॥२५॥ तं ब्रूतोऽम्बापितरौ, श्रामण्यं पुत्र ! दुश्चरम् । गुणानां तु सहस्राणि, धारयितव्यानि भिक्षुणा ॥२५॥
पदार्थान्वयः-तं-उस-मृगापुत्र को अम्मापियरो-माता-पिता बिंत-कहने लगे-पुत्त-हे पुत्र ! सामएणं-श्रमणभाव-साधुवृत्ति दुच्चरं-दुश्चर है गुणाणं-गुणों का सहस्साई-सहस्र-अर्थात् हजारों गुण तु-वितर्क में, निश्चय में है, धारेयव्वाईधारण करने चाहिए भिक्खुणा-भिक्षु को।
___ मूलार्थ हे पुत्र ! संयमवृत्ति का पालन करना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि भिक्षु को हजारों गुण धारण करने पड़ते हैं। इस प्रकार उसको उसके माता पिता ने कहा।
टीका-पुत्र के इस प्रकार के कथन को सुनकर उसके माता पिता ने कहा कि हे पुत्र ! श्रमणभाव-साधुवृत्ति का पालन करना बहुत ही कठिन काम है। क्योंकि संयमवृत्ति में सहायता देने वाले सहस्रों गुण साधु को धारण करने पड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि शील आदि अनेक गुण हैं, जो कि संयम के संरक्षक और जिनका साधु में विद्यमान होना परम आवश्यक है। कहने का सारांश यह है कि जीव को एक गुण का धारण करना भी कठिन है तो संयमवृत्ति के निर्वाहार्थ क्षमा आदि हजारों गुणों को अपनी आत्मा में स्थान देना कितना कठिन होगा इसकी कल्पना तो सहज ही में हो सकती है। अतः संयमवृत्ति का सम्यग् अनुष्ठान करना बहुत ही कठिन है। यहाँ पर 'भिक्खुणा' यह तृतीयान्तपद षष्ठी के स्थान में ग्रहण किया गया है । तथा 'वतः' के स्थान में 'वित्त' और 'अम्बा' के स्थान में 'अम्मा' यह आदेश अपभ्रंश भाषा के नियमानुसार किया गया है । एवं इतना और भी स्मरण रहे कि मृगापुत्र के माता पिता ने संयम के विषय में असद्भाव प्रकट नहीं किया किन्तु उसकी दुष्करता बतलाई है, जो कि सर्वथा समुचित है।
___ अब संयम की दुश्वरता को प्रमाणित करने के लिए साधु के आचरण करने योग्य मुख्यतया जो पाँच महाव्रत हैं, उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। यथा