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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
AvAMAYA
जहा किम्पागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥१८॥ यथा . किंपाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः। एवं भुक्तानां भोगानां, परिणामो न सुन्दरः ॥१८॥ ..
पदार्थान्वयः-जहा-जैसे किंपागफलाणं-किम्पाक वृक्ष के फलों का परिणामो-परिणाम न सुंदरो-सुन्दर नहीं है एवं-इसी प्रकार भुत्ताण-भोगे हुए भोगाणं-भोगों का परिणामो-परिणाम न सुंदरो-सुन्दर नहीं है।
मूलार्थ-जैसे किम्पाक वृक्ष के फलों का परिणाम सुन्दर नहीं है, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं है।
टीका-इस गाथा में विषय-भोगों के कटु परिणाम का दृष्टान्त द्वारा दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे कि किम्पाक वृक्ष के फल देखने में सुन्दर, खाने में मधुर और स्पर्श में भी सुकोमल होते हैं किन्तु उनका परिणाम सुन्दर नहीं होता अर्थात् , भक्षण करने वाले पर उनका प्रभाव यह होता है कि वह खाने के अनन्तर शीघ्र ही
अपने प्राणों का त्याग कर देता है। जिस प्रकार किम्पाक फल देखने और खाने में सुन्दर तथा स्वादु होता हुआ भी भक्षण करने वाले के प्राणों का शीघ्र ही संहार कर देता है, ठीक उसी प्रकार इन विषय भोगों की दशा है। ये आरम्भ के समय ( भोगते समय ) तो बड़े ही प्रिय और चित्त को आकर्षित करने वाले होते हैं परन्तु भोगने के पश्चात् इनका बड़ा ही भयंकर परिणाम-फल होता है। तात्पर्य यह है कि आरम्भिक काल में इनकी सुन्दरता और मनोज्ञता चित्त को बड़ी ही लुभाने वाली
और प्रसन्न करने वाली होती है। इनके आकर्षण का प्रभाव सांसारिक जीवों पर इतना अधिक पड़ता है कि वे प्राण देकर भी इनको प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु उत्तरकाल में जब कि इनका उपभोग कर लिया जाय, इनका जो कटुफल जीवों को भोगना पड़ता है, उसकी तो कल्पना करते हुए भी रोमाञ्च हो उठता है। नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक केश तथा नरक निगोदादि स्थानों की भयंकर यातनाएँ सब इन्हीं के कटुफल हैं। इसलिए बुद्धिमान् पुरुषों को इनका सर्वथा परित्याग करना चाहिए।