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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७५ खेत्तं वत्थु हिरणं च, पुत्तदारं च बन्धवा । चइत्ता णं इमं देहं, गन्तव्वमवसस्स मे ॥१७॥ क्षेत्रं वास्तु हिरण्यं च, पुत्रदारांश्च बान्धवान् । त्यक्त्वेमं दे हं, गन्तव्यमवशस्य मे ॥१७॥ पदार्थान्वयः-खेत्तं-क्षेत्र वत्थु-घर च-और हिरएणं-सुवर्णादि पदार्थ पुत्त-पुत्र दारं-स्त्री च-और बंधवा-भाइयों को चहत्ता-छोड़कर तथा इमं-इस देहं-शरीर को मे मैंने अवसस्स-अवश्य ही गंतव्यं-जाना है, परलोक में । णं-वाक्यालंकार में। मूलार्थ क्षेत्र, गृह, सुवर्ण, पुत्र, स्त्री और बान्धव तथा इस शरीर को छोड़कर मैंने अवश्यमेव परलोक में गमन करना है। टीका-क्षेत्र-धान्यादि बीज वपन करने के स्थान तथा आराम आदि सुन्दर स्थान । वास्तु-गृह, प्रासादादि निर्माण किये हुए स्थान । हिरण्य-सोना, चाँदी आदि धातु पदार्थ । पुत्र और स्त्री तथा भ्रातृवर्ग, इतना ही नहीं किन्तु यह शरीर भी इस जीव के साथ जाने वाला नहीं । अर्थात् इन सब पदार्थों को छोड़कर परवश हुआ यह जीव परलोक में चला जाता है और ये सब पदार्थ-जिनके लिए यह जीव अनेक प्रकार के छल-प्रपंच करता है—यहीं पर पड़े रहते हैं। तात्पर्य यह है कि इस आत्मा का इन पदार्थों से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । अतः कर्मों की पराधीनता से यह जीव इनको यहीं पर छोड़कर परलोक में गमन कर जाता है। जब कि ऐसी अवस्था है, तब कौन बुद्धिमान् इन पदार्थों में आसक्त होकर अपनी आत्मा को दुःखों के अगाध सागर में डुबोने का जघन्य प्रयास करेगा ? अतएव मैं इन पदार्थों में मूर्छित होकर अपनी आत्मा का अधःपतन नहीं करना चाहता किन्तु इनसे सर्वथा उपराम होकर केवल मोक्षमार्ग का पथिक बनना चाहता हूँ। यह प्रस्तुत गाथा का भावार्थ है। इस प्रकार संसार के निर्वेदविषय का वर्णन करके अब भोगों के कटुविपाक का वर्णन करते हैं। यथा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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