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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अब मृगापुत्र अपने अभिप्राय को दृष्टान्त द्वारा प्रदर्शित करते हैं
अाणं जो महंतं तु, अपाहेजो पवखई । अद्धाणं गच्छंतो सो दुही होइ, छुहातण्हाइपीडिओ ॥१९॥
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प्रव्रजति ।
अध्वानं यो महान्तं तु, अपाथेयः गच्छन् स दुःखी भवति, क्षुधातृष्णया पीडितः ॥ १९ ॥
पदार्थान्वयः – जो-जो पुरुष महंतं - महान अद्धाणं - मार्ग को तु-वितर्क में अपाहेजो - पाथेयरहितं पवज्जई - अंगीकार करता है गच्छंतो- चलता हुआ सोवह दुही - दुःखी होइ - होता है छुहा - भूख तण्हाइ - पिपासा से पीडिओ - पीड़ित होने पर ।
मूलार्थ -- जो कोई पुरुष विना पाथेयं के किसी विशाल मार्ग का अनुसरण करता है, वह मार्ग में चलता हुआ क्षुधा और तृष्णा से पीड़ित होकर जैसे दुःखी होता है [ वैसे ही धर्म से रहित मनुष्य परलोक में दुःखी होता है ] इस प्रकार अग्रिम श्लोक से अन्वय करके अर्थ करना ।
टीका - मृगापुत्र अपनी माता और पिता से कहते हैं कि जैसे कोई लम्बे सफ़र को जाने वाला पुरुष पाथेय के बिना ही चल पड़ता है अर्थात् मार्ग में काम आने योग्य खर्चे के विना ही सफ़र करने लग जाता है और रास्ते में जब उसे भूख और प्यास लगे तब उसको शान्त करने के लिए उसके पास कुछ भी न हो, तो जैसे वह पुरुष उस मार्ग में अत्यन्त दुःखी होता है इसी प्रकार धर्माचरण के विना परलोक का सफ़र करने वाले इस जीव को अनेक प्रकार के असह्य कष्ट सहन करने पड़ते हैं। इसके विपरीत जिस पथिक के पास मार्ग में लगने वाली क्षुधा और तृष्णा की निवृत्ति के लिए पाथेय विद्यमान है और उससे वह अपने क्षुधा और पिपासाजन्य कष्ट को दूर करके सुखी हो जाता है, उसी प्रकार इस लोक में धर्म का आचरण करने वाला पुरुष परलोक की यात्रा में उपस्थित होने वाले कष्टों से बचा रहता है । अत: बुद्धिमान् पुरुष को परलोक में काम आने लायक पाथेय रूप धर्म का अवश्य संचय कर लेना चाहिए ।
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." अब इसी अभिप्राय को स्फुट करने के लिए कहते हैं कि