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________________ ७८२] तथा च उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ एकोनविंशाध्ययनम् असासए सरीरंमि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुसन्निभे ॥१४॥ अशाश्वते शरीरे, रतिं नोपलभेऽहम् । पश्चात् पुरा वा त्यक्तव्ये, फेनबुदबुदसंनिभे ॥१४॥ पदार्थान्वयः—– असासए— अशाश्वत सरीरंमि - शरीर में अहं - मैं रहूं-रतिप्रसन्नता न-नहीं उवलभाम् - प्राप्त करता हूं क्योंकि — पच्छा-पीछे - अथवा पुरापहले चइयव्वे-छोड़ने वाले फेणबुब्बुय - फेन के बुलबुले के सन्निभे - समान । मूलार्थ - इस अशाश्वत शरीर में मैं प्रसन्नता प्राप्त नहीं करता क्योंकि फेन के बुलबुले के समान यह शरीर है, जो कि पहले अथवा पीछे अवश्य विनाश वाला है। टीका - मृगापुत्र अपने माता पिता से फिर कहते हैं कि यह शरीर अशाश्वत बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। अतः मुझे इसमें कोई आनन्द नहीं, क्योंकि दो दिन आगे अथवा पीछे इसको अवश्य छोड़ना पड़ेगा, फिर इसमें रति कैसी ? इस कथन का तात्पर्य यह है कि इस शरीर का विनाश — वियोग अवश्यंभावी है। यदि इसके द्वारा कुछ समय तक शब्दादि विषयों का उपभोग किया जावे तो भी इसने विनष्ट हो जाना है । अथवा किसी उपक्रम के द्वारा वाल्यादि अवस्था में बिना उपभोग किये भी इसके विनाश की संभावना हो सकती है। तात्पर्य यह है कि उपभुक्त अथवा अनुपभुक्त दोनों ही दशाओं में इसकी विनश्वरता निश्चित है, फिर ऐसे विनाशशील पदार्थ में कामभोगों के लिये आसक्त होना किसी प्रकार से भी बुद्धिमत्ता का काम नहीं । इसके अतिरिक्त इस शरीर में जो सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है वह भी जल 1 के बुलबुले के समान मात्र क्षणभर स्थायी रहने वाला है । इसलिए हे माता मुझे इस शरीर में किंचिन्मात्र भी स्नेह नहीं है । अब संसार के निर्वेद विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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