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एकोनविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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इदं शरीरमनित्यम् , अशुच्यशुचिसंभवम् । अशाश्वतावासमिदं , दुःखक्लेशानां भाजनम् ॥१३॥
___ पदार्थान्वयः-इमं-यह सरीरं-शरीर अणिचं-अनित्य है असुई-अपवित्र है और असुइसंभवं-अशुचि से उत्पन्न हुआ है असासयावासम्-अशाश्वत ही इसमें जीव का निवास है इणं-यह शरीर दुक्खकेसाण-दुःख और क्लेशों का भायणं-भाजन है।
मूलार्थ—यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, और अशुचि से इसकी उत्पत्ति है। तथा इसमें जीव का निवास भी अशाश्वत ही है, एवं यह शरीर दुःख और क्लेशों का भाजन है।
टीका-मृगापुत्र ने अपने माता पिता के प्रति इस शरीर की अनित्यता, अशुचिता और दुःखभाजनता का वर्णन करते हुए इसकी असारता का अच्छा चित्र खींचा है । वे कहते हैं कि यह शरीर अनित्य अर्थात् क्षणभंगुर है और स्वभाव से अपवित्र है क्योंकि इसकी उत्पत्ति शुक्र, शोणित आदि अपवित्र पदार्थों से ही देखी जाती है। तथा इस शरीर की अपेक्षा से इसमें निवास करने वाला जीव भी अशाश्वत ही है, अथवा इसमें जीवात्मा का निवास भी अशाश्वत ही है। प्रथम पक्ष में आधारभूत शरीर के अशाश्वत होने से उसके आधेयभूत जीव को भी . अशाश्वत कहा गया है जो कि व्यवहारनयसम्मत औपचारिक कथन है। इसके अतिरिक्त यह शरीर नाना प्रकार के दुःख और क्लेशों का भाजन है। क्योंकि जितने भी शारीरिक अथवा मानसिक दुःख अथवा क्लेश हैं, वे सब शरीर के आश्रय से ही होते हैं । इसलिए यह शरीर अनेक प्रकार के दुःखों और क्लेशों का स्थान है। यहाँ पर इतना स्मरण अवश्य रहे कि उक्त गाथा में शरीर को अनित्य बतलाया गया है किन्तु मिथ्या नहीं कहा गया । क्योंकि अनेकान्तवाद के सिद्धान्तानुसार पर्याय दृष्टि से सब पदार्थ अनित्य माने हैं, मिथ्या नहीं । मिथ्यापना और अनित्यपना ये दोनों भिन्न २ पदार्थ हैं। इनकी व्याख्या भी भिन्न २ है । अतः शरीरादि को अनित्य कहने से उनको कोई सज्जन मिथ्या न समझें । इस विषय पर प्रसंगानुसार कहीं अन्यत्र प्रकाश डाला जायगा।