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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकोनविंशाध्ययनम्
अम्ब ! तात ! मया भोगाः, भुक्ता विषफलोपमाः। पश्चात् . कटुकविपाकाः, अनुबन्धदुःखावहाः॥१२॥
पदार्थान्वयः-अम्म-हे माता ! ताय-हे तात ! मए-मैंने विसफलोबमाविषफल की उपमा वाले भोगा-भोग भुत्ता-भोग लिये पच्छा-पश्चात् कडुयकटुक विवागा-विपाक है इनका अणुबंध-अनुबन्ध दुहावहा-दुःखों के देने वाला है।
मूलार्थ है माता और हे पिता ! मैंने इन भोगों को भोग लिया, जो विषफल के समान हैं, और पीछे से जिनका विपाक अत्यन्त कटु एवं निरन्तर दुःखों के देने वाला है।
टीका-मृगापुत्र अपने माता पिता से कहते हैं कि मैंने कामभोगों को भली भाँति भोग लिया । ये समस्त कामभोग विषफल के समान देखने में सुन्दर
और खाने में मधुर तथा परिणाम में दुःख के देने वाले हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे विषफल देखने में तो सुन्दर होता है और खाने में भी स्वादु होता है परन्तु खाने के अनन्तर उसका फल मृत्यु होता है अर्थात् खाने वाले के प्राण ले लेता है उसी प्रकार ये कामभोग भी भोगने के समय तो अत्यन्त प्रिय लगते हैं परन्तु परिणाम में अधिक से अधिक दुःख के देने वाले हैं । अर्थात् इनका विपाक बहुत कटु अथ च अनिष्टप्रद है। इसलिए ये कामभोग, बाल जीवों को ही प्रियकर हो सकते हैं, विज्ञ जीवों को नहीं। विचारशील पुरुष तो इनके अनुबन्ध को भली भाँति जानते हैं अतएव वे इनसे सर्वथा दूर रहते हैं । इसके विपरीत जो बाल जीव इन विषयभोगों का सेवन करते हैं, वे जीव चारों गतियों के दुःखों का निरन्तर अनुभव करते हैं। . इसलिए हे माता ! मैं इन विषयभोगों के सेवन की अभिलाषा को सर्वथा त्याग बैठा हूँ। आप से पुन: मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे संयम ग्रहण करने की आज्ञा दें, ताकि मैं इन उपस्थित दुःखों से छूटने का प्रयत्न करूँ।
वास्तव में ये कामभोगादि विषय ही अनित्य एवं दुःखदायी नहीं अपितु यह शरीर भी अनित्य और दुःखों की खान है। अब इस विषय का वर्णन करते हैं। यथा
इमं सरीरं अणिचं, असुइं असुइसंभवं । असासयावासमिणं , दुक्खकेसाण भायणं ॥१३॥