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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
श्रुतानि मया पंच महाव्रतानि, नरकेषु दुःखं च तिर्यग्योनिषु । महार्णवात्,
निर्विण्णकामोऽस्मि
अनुजानीत प्रत्रजिष्यामि मातः ! ॥११॥
एकोनविंशाध्ययनम् ]
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पदार्थान्वयः – सुयाणि – सुने हैं मे मैंने पंच महव्वयाणि - पाँच महाव्रत नरएसु-नरकों के दुक्खं–दुःख च - और तिरिक्खजोणिसु - तिर्यग्योनियों के दु:ख, अतः महण्णवाओ – संसाररूप समुद्र से निव्विणकामोमि - मैं निवृत्त होने की कामना वाला हो गया हूँ, अत: अम्मो - हे माता ! पव्वइस्सामि - मैं दीक्षित होऊँगा अणुजाह - मुझे आज्ञा दो ।
मूलार्थ - हे मातः ! मैंने पाँच महाव्रतों को तथा नरक और तिर्यग् योनि के दुःखों को सुना है । अतः मैं इस संसार रूपी समुद्र से निवृत्त होने का अभिलाषी हो गया हूँ । मुझे आज्ञा दो ताकि मैं दीक्षित हो जाऊँ ।
टीका - माता पिता के पास आकर मृगापुत्र ने कहा कि मैंने पूर्वजन्म में पालन किये हुए पाँच महाव्रतों को जान लिया, तथा नरकों में अनुभव किये हुए दु:खों और पशुयोनि में भोगे हुए कष्टों को — उपलक्षण से देव और मनुष्य योनि के संयोग-वियोग-जन्य दुःखों को अच्छी तरह से स्मरण कर लिया है । अत: मैं इस संसार से निवृत्त होने की अभिलाषा रखता हूँ । आप मुझे आज्ञा दो कि मैं दीक्षाग्रहण करके संयम का आराधन करता हुआ इन सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छूटने का प्रयत्न करूं । उक्त गाथा में जो माता का सम्बोधन दिया है उसका तात्पर्य माता की पूज्यता प्रकट करना है । और 'श्रुतानि' यह पूर्व जन्म की अपेक्षा से जानना अर्थात् पूर्वजन्म में मैंने पाँच महाव्रतों का श्रवण किया है। तथा संसार में जो किंचिन्मात्र सुख भी है वह भी वस्तुतः दुःखरूप ही है यह इसका फलितार्थ है । प्रव्रज्या का हेतु वैराग्य है, अतः वैराग्य के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए प्रथम सांसारिक सम्बन्ध का निरूपण करते हैं
अम्मताय ! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । कडुयविवागा, अणुबन्धदुहावहा ॥१२॥
पच्छा