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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् पूर्वजन्म की धारण की हुई श्रमणता का ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसने क्या किया, अब इसी विषय का वर्णन किया जाता है- .. विसएसु अरजंतो, रजंतो संजमम्मि य ।
अम्मापियरमुवागम्म , इमं वयणमब्बवी ॥१०॥ विषयेष्वरज्यन् , रज्यन् संयमे च।
अम्बापितरावुपागम्य , इदं वचनमब्रवीत् ॥१०॥ ___ पदार्थान्वयः-विसएसु-विषयों में अरजंतो-राग न करता हुआ य-और संजमम्मि-संयम में रजंतो-राग करता हुआ अम्मापियरं-माता पिता के पास उवागम्म-आकर इमं यह वयणम्-बचन अब्बवी-कहने लगा।
मूलार्थ-मृगापुत्र विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त होता हुआ माता पिता के पास आकर यह वक्ष्यमाण वचन कहने लगा।
टीका-जातिस्मरणज्ञान होने के अनन्तर जब मृगापुत्र ने अपने पूर्वजन्म में ग्रहण किये हुए श्रमण भाव को देखा तो उसे सांसारिक विषय भोगों से उपरामता हो गई और संयम में अनुराग पैदा हो गया। तात्पर्य यह है कि विषयों से उपरति होने के साथ ही संयम ग्रहण में अभिरुचि बढ़ गई। और माता पिता के पास आकर वह इस प्रकार कहने लगा । उक्त गाथा में जो विषय वर्णित किया गया है उससे यह स्पष्ट व्यक्त हो जाता है कि इस जीव की जब विषयों से विरक्ति हो जाती है तब उसका चित्त मोक्ष के साधनभूत दर्शन ज्ञान और चरित्र के सम्पादन की ओर बढ़ता है। यही कारण है कि ज्ञानी पुरुषों के हृदय से विषयवासना का समूल नाश हो जाता है।
मृगापुत्र ने माता पिता के पास जाकर जो कुछ कहा अब उसका वर्णन करते हैंसुयाणि मे पंच महव्वयाणि,
नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु । निविण्णकामो मि महण्णवाओ,
अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! ॥११॥