SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७८३ माणुसत्ते असारम्मि, वाहीरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि , खणंपि न रमामहं ॥१५॥ मनुष्यत्व असारे, व्याधिरोगाणामालये । जरामरणग्रस्ते , क्षणमपि न रमेऽहम् ॥१५॥ __ पदार्थान्वयः-असारंमि-असार माणुसत्ते-मनुष्यभव में वाही-व्याधि रोगाण-रोगों के आलए-स्थान में जरा-बुढ़ापा मरण-मृत्यु से पत्थंमि-प्रसे हुए खणंपि-क्षणमात्र भी अहं-मैं न रमाम् रति-आनन्द नहीं पाता हूँ। मूलार्थ-व्याधि और रोगों के घर, जरा और मृत्यु से ग्रसे हुए, इस असार मनुष्यजन्म में मैं क्षणमात्र भी प्रसन्न नहीं होता हूँ। टीका-मृगापुत्र फिर अपनी माता से कहते हैं कि यह मनुष्य भव बिलकुल असार है क्योंकि यह सदा स्थिर रहने वाला नहीं। तथा आधि व्याधियों का घर है, एवं जरा और मृत्यु का चक्र हर समय इस पर घूम रहा है। अतः ऐसे मनुष्य भव में मुझे किसी प्रकार की भी प्रीति नहीं। अर्थात् इस प्रकार के क्षणभंगुर और जराग्रस्त रोगालय में आसक्त होकर, विषय भोगों का सेवन करना, मुझे किसी प्रकार से भी अभीष्ट नहीं है। यहां पर इतना स्मरण रहे कि सूत्र में मनुष्य जन्म को जो असार बतलाया है वह शरीर को लेकर केवल पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से ही कहा गया है । जीव तो शाश्वत है, कर्मों के सम्बन्ध से वह नवीन २ पर्याय-शरीर को धारण कर रहा है और उन्हीं पर्यायों में वह नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव कर रहा है । तथा उक्त सूत्र में कराया गया शारीरिक दुःखों का दिग्दर्शन, मानसिक दुःखों का भी उपलक्षण समझ लेना । ___इस प्रकार मनुष्यभवसम्बन्धि दुःखों का वर्णन करने के अनन्तर अब उसकी प्रत्येक दशा के दुःख का दिग्दर्शन कराते हैं जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हुसंसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो ॥१६॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy