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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
मूलार्थ - साधु के दर्शन होने के अनन्तर, मोह कर्म के कुछ दूर होने पर तथा अन्तःकरण में सुन्दर भावों के उत्पन्न होने से मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया ।
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टीका —- साधु मुनिराज के दर्शन करने के अनन्तर मृगापुत्र के आंतरिक परिणामों में बहुत शुद्धि हो गई । उसके कारण मृगापुत्र को जो मोह उत्पन्न हो रहां था— 'कि मैंने इसको प्रथम कहीं पर देखा है' — उसमें क्षयोपशमभाव उत्पन्न होने से उसको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । तात्पर्य यह है कि जब उसने एकाग्रचित्त से विचार किया तब पूर्वजन्म को आवरण करने वाले कर्मदल क्षयोपशमभाव में आ गए और जातिस्मरण ज्ञान को उन्होंने उत्पन्न कर दिया । जब एकाग्रचित्तवृत्ति से ध्यान किया जावे तब बहुत से कर्म, क्षय अथवा क्षयोपशमभाव को प्राप्त हो जाते हैं जिसका परिणाम आत्मगुणों में विकास का होना है ।
जातिस्मरण ज्ञान होने पर मृगापुत्र ने क्या देखा अब इसी विषय में कहते हैं
देवलोगचुओ संतो, माणुसंभवमागओ । सन्निनाणसमुप्पन्ने, जाइंसरइपुराणयं.
॥८॥
देवलोकच्युतः सन्, मानुषं भवमागतः । संज्ञिज्ञानसमुत्पन्नो . जातिंस्मरतिपौराणिकीम् ॥८॥
"
पदार्थान्वयः— देवलोग–देवलोक से चुओ- च्युत संतो - होकर माणुसंमनुष्य के भवम्-भव में आगओ - आ गया हूँ सन्निनाण-संज्ञिज्ञान के समुप्पन्ने– उत्पन्न हो जाने पर जाई - जाति की सरह - स्मृति करता है पुराणयं - पूर्वजन्म की ।
मूलार्थ — मैं देवलोक से च्युत होकर मनुष्य के भव में आ गया हूँ ऐसा संज्ञिज्ञान हो जाने पर मृगापुत्र, पूर्वजन्म का स्मरण करने लगा ।
टीका - मृगापुत्र को जब जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया तब उसने ज्ञान में देखा कि मैं देवलोक से च्युत होकर अब मनुष्य के जन्म में आ गया हूँ । क्योंकि संज्ञि ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर पूर्वजन्म की स्मृति ठीक हो जाती है, संज्ञि ज्ञान जातिस्मरण ज्ञान का ही अपर नाम है - इस ज्ञान के द्वारा संज्ञि - ( मनवाले जन्मों