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________________ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७७५ ___ मूलार्थ-उस मुनि को वह मृगापुत्र निर्निमेष दृष्टि से देखने लगा, और मन में सोचता है-मैं मानता हूं कि इस प्रकार का रूप मैंने प्रथम कहीं पर अवश्य देखा है। टीका-प्रस्तुत गाथा में ध्यान से स्मृति ज्ञान की उत्पत्ति अथवा प्रत्यभिज्ञाज्ञान से पूर्वजन्म की स्मृति के होने का दिग्दर्शन कराया गया है। अपनी मुनिवृत्ति के अनुसार गमन करते हुए उस मुनि को मृगापुत्र ने निरन्तर एकटक होकर देखा और मुनि के वेष को देखकर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार का वेष तो मैंने आगे भी कहीं पर देखा है ऐसा मुझे इस वेष के देखने से भान होता है । तात्पर्य यह है कि साधु के वेष को देखकर उसे पूर्वदृष्ट की स्मृति हो आई । वास्तव में एकान्तचित्त होकर प्रत्यभिज्ञाज्ञान से जो विचार किया जाता है वह प्रायः सफल ही होता है । परन्तु इसमें भावशुद्धि की सब से अधिक आवश्यकता है। सालम्बन ध्यान में दृष्टि की अनिमेषता ही सबसे अधिक आवश्यक है यह भाव उक्त गाथा से स्पष्ट व्यक्त होता है । तथा किसी २ प्रति में पेहई' के स्थान में 'देहई' ऐसा पाठ भी देखने में आता है जो कि 'पश्यति' के स्थान पर आदेश किया हुआ है। इसके अनन्तर क्या हुआ ? अब इसी के सम्बन्ध में कहते हैंसाहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणंमिसोहणे । मोहं गयस्स सन्तस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ॥७॥ साधोर्दर्शने तस्य, अध्यवसाने शोभने । गतमोहस्य सतः, जातिस्मरणं समुत्पन्नम् ॥७॥ पदार्थान्वयः-साहुस्स-साधु के दरिसणे-दर्शन होने पर तस्स-उस मृगापुत्र के सोहणे-शोभन अज्झवसाणंमि-अध्यवसान होने पर मोहं गयस्समैंने कहीं पर इसको देखा है इस प्रकार की चिन्ता से निर्मोहता को संतस्स-प्राप्त हो जाने पर जाईसरणं-जातिस्मरणज्ञान समुप्पन्न-उत्पन्न हो गया।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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