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________________ ७७२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकोनविंशाध्ययनम् भी ईश्वर अर्थात् उनसे भी बढ़कर इन्द्रियों का दमन करने वाला होने से वह दमीश्वर कहलाया। इस कथन से मृगापुत्र के आत्मा की विशिष्टता ध्वनित होती है। ___ अब मृगापुत्र की सुख सम्पत्ति के विषय में कहते हैं-- नन्दणे सो उ पासाए, कीलए सह इत्थिहिं । देवो दोगुन्दगो चेव, निच्चं मुइयमाणसो ॥३॥ नन्दने स तु प्रासादे, क्रीडति सह स्त्रीभिः । देवो दोगुन्दकश्चैव, नित्यं मुदितमानसः ॥३॥ ___पदार्थान्वयः-नन्दणे-नन्दन नाम के पासाए-प्रासाद में स-वह मृगापुत्र उ-वितर्क अर्थ में है कीलए-क्रीड़ा करता है इत्थिहि-त्रियों के सह-साथ दोगुन्दगो-दोगुन्दक देवो-देव इव-की तरह च-पादपूर्ति में निच्चं-सदा मुइयप्रसन्न माणसो-मन में। मूलार्थ जैसे दोगुन्दकदेव, स्वर्ग में सुखों का अनुभव करते हैं उसी प्रकार वह मृगापुत्र भी अपने नन्दन-सर्व लक्षणोपेत-प्रासाद में स्त्रियों के साथ सदैव प्रसन्नचित्त होकर क्रीड़ा करता था। टीका-इस गाथा में मृगापुत्र के भोग-विलांसजन्य सुख का दिग्दर्शन कराया गया है । जैसे दोगुन्दक संज्ञा वाले देव, स्वर्ग के विलक्षण सुखों का अनुभव करते हैं उसी प्रकार मृगापुत्र भी प्रसन्नचित्त से सांसारिक विषयभोगों का सम्पूर्ण रूप से अनुभव कर रहा है । इस कथन का अभिप्राय यह है कि दोगुन्दक देवों में सुखों के अनुभव के समय में किसी प्रकार के विघ्न की शंका नहीं रहती, क्योंकि वे इन्द्र के गुरु स्थान में होते हैं अत: उन पर किसी का शासन नहीं चल सकता किन्तु उनसे प्रार्थना ही की जाती है। तथाहि—'दोगुन्दगाश्च त्रायस्त्रिंशाः । तथा च वृद्धाः'त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दगा इति भणंति' अर्थात्-सदाभोगपरायण जो त्रायस्त्रिंशत् देव हैं उनकी दोगुन्दग संज्ञा है। यहां पर गाथा में आया हुआ प्रासाद का विशेषण जो 'नन्दन' शब्द है वह राजभवन की विलक्षणता का द्योतक है। और मुदितमानसः' के कहने से सातावेदनीय के फल का प्रदर्शन होता है।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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