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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[७७३ अब फिर इसी विषय में कहते हैंमणिरयणकुट्टिमतले, पासायालोयणे ठिओ। आलोएइ नगरस्स, चउक्कत्तियचच्चरे ॥४॥ मणिरत्नकुट्टिमतले , प्रासादालोकनस्थितः । आलोकयति नगरस्य, चतुष्कत्रिकचत्वरान् ॥४॥ ____ पदार्थान्वयः-मणिरयण-मणिरत्न कुट्टिमतले-कुट्टिमतल से युक्त पासायप्रासाद के आलोयणे-गवाक्ष में ठिओ-स्थित होकर आलोएइ-देखता है नगरस्सनगर के चउक्क-चतुष्पथ को त्तिय-त्रिपथ को और चच्चरे–बहुपथों को।
मूलार्थ-किसी समय वह मृगापुत्र-मणिरत्नादि से युक्त प्रासाद के गवाक्ष में स्थित होकर नगर के चतुष्पथ ( चौराह ) त्रिपथ और बहुपथों को कुतूहल से देखने लगा। ..
... टीका-किसी समय मृगापुत्र अपने निवास-भवन के गवाक्ष में खड़ा होकर नगर का अवलोकन करने लगा। उसका निवास-भवन चन्द्रकान्ता आदि मणियों तथा गोमेद आदि रत्नों से पूर्णतया शोभायमान था। ( तात्पर्य यह है कि उसके तलभाग में—फर्श में भी मणिरत्नादि लगे हुए थे। जहां पर चार मार्ग आकर मिलें उसको चतुष्क ( चौंक ) और जहां पर तीन मिलें उसे त्रिक एवं जहां पर अनेक मार्ग इकट्ठे हों उसको चत्वर कहते है)। सारांश यह है कि वह राजकुमार अपने रमणीय भवन पर से नगर के हर एक विभाग को भली प्रकार से देखता था। प्रस्तुत गाथा में राज्यभवन के सौन्दर्य और पुण्यात्मा के निवास का प्रासंगिक दिग्दर्शन कराया गया है।
राज्यभवन से नगर को देखने के अनन्तर क्या हुआ ? अब इसी विषय का वर्णन करते हैं
अह तत्थ अइच्छन्तं, पासई समणसंजयं । तवनियमसंजमधरं , सीलडं गुणआगरं ॥५॥