SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६८ ] [ अष्टादशाध्ययनम् 1 टीका - प्रस्तुत गाथा का निर्देश, जिनशासन की महिमा बतलाने के निमित्त से किया गया है और अपने कथन को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए भी उक्त गाथा का उल्लेख है । क्षत्रिय ऋषि कहते हैं कि हे मुने ! मैंने जिस वाणी का उपदेश आपके समक्ष किया है वह कर्ममल के शोधन में अत्यन्त सामर्थ्य रखने वाली है अर्थात् कर्ममल को आत्मा से पृथक् करने में वह विशेष शक्ति रखती है । अधिक क्या कहें, जिन शासन की सर्व प्रकार से अनुकूलता रखने वाली इस वाणी के प्रभाव से अनेक जीव तर गए, अनेक तरेंगे और वर्तमान में अनेक तर रहे हैं । तात्पर्य यह है कि दुस्तर संसार समुद्र से पार करने के लिए इस वाणी रूप नौका का जो भी कोई जीव आश्रय लेता है उसके पार होने में कोई भी सन्देह नहीं । इसके अतिरिक्त इस गाथा के दूसरे पाद में आए हुए 'एसा' पद के स्थान में किसी २ प्रति में 'सव्वा' और 'सच्चा' यह दो पाठान्तर भी देखने में आते हैं जिनका क्रम से 'सब का हित करने वाली, और सच्ची वाणी' यह अर्थ है । तथा — जिन वाणी ही आत्मलिप्त कर्ममल को दूर करने में समर्थ है और कोई नहीं, यह इस गाथा का ध्वनित अर्थ है । इसलिए उक्त अर्थ का निगमन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं उत्तराध्ययनसूत्रम् कहं धीरे अहेऊहिं, अद्दाय परियावसे । सव्वसंगविनिम्मुक्को, सिद्धे भवइ नी ॥ ५४ ॥ तिमि । इति संजइजं समत्तं ॥ १८॥ कथं सर्व संगविनिर्मुक्तः धीरोऽहेतुभिः, आदाय पर्यावासयेत् । सिद्धो भवति नीरजाः ॥ ५४ ॥ " saar | इति संयतीय समाप्तं ॥ १८॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy