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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ७६६ पदार्थान्वयः—कहूं— कैसे धीरे- धैर्यवान् अहेऊहिं- कुहेतुओं को अद्दायग्रहण करके परियावसे- उनमें — कुहेतुओं में — बसे ? अपितु नहीं, किन्तु सव्वसर्व संग-संग से विनिमुक्को - विनिर्मुक्त होकर सिद्धे-सिद्ध भवइ-होता है नीरएकर्ममल से रहित त्ति-इस प्रकार बेमि - मैं कहता हूँ । यह संयताध्ययन समाप्त हुआ । मूलार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, इन कुहेतुओं में- क्रियावादादिमतों मेंकिस प्रकार बसे ? अर्थात् नहीं बस सकता, किन्तु सर्व प्रकार के संग से रहित हुआ पुरुष, कर्ममल से रहित होकर सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार मैं कहता हूँ । टीका - प्रस्तुत गाथा का तात्पर्य यह है कि जो विचारशील पुरुष हैं वे क्रियावादि प्रभृति मतों के कुहेतुओं को ग्रहण नहीं करते और ना ही उनके विशेष परिचय में आते हैं, किन्तु सर्व प्रकार के संसर्ग से मुक्त होकर ज्ञानपूर्वक चरित्र का सम्यक् आराधन करके कर्ममल से सर्वथा रहित होते हुए सिद्धगति को प्राप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त गाथा के दूसरे पाद का 'अत्ताणं परियावसे' ऐसा पाठ भी है । आत्मानं पर्यावासयेत् — अर्थात् कौन बुद्धिमान पुरुष कुहेतुओं से अपने आत्मा को अहित — अनिष्ट — स्थान में निवास करने के लिए प्रेरित करे ? अपितु कोई भी बुद्धिमान पुरुष ऐसा नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि जो विचारशील पुरुष होते हैं वे अपनी आत्मा के अहित में कभी प्रवृत्त नहीं होते किन्तु जिस स्थान में आत्मा का हित हो उसी में वे आत्मा को रखते हैं । इसी आशय से उक्त गाथा में 'सव्वसंगविनिमुक्को' यह पढ़ा गया है अर्थात् विचारशील पुरुष सर्व प्रकार के संग से मुक्त होकर सिद्धपद को प्राप्त हो जाते हैं । द्रव्यसंग माता पिता आदि का है और भावसंग, मिथ्यात्वादि का है । तथा यहां पर पुनः २ जो अहेतु पद दिया है उसका अभिप्राय यह है कि अहेतु, अज्ञान का कारण है, और हेतु से सम्यक् ज्ञान की उत्पत्ति है । इस प्रकार संजयमुनि को उपदेश देकर क्षत्रियऋषि तो विहार कर गए और संजय मुनि तपसंयम के अनुष्ठान द्वारा आत्मशुद्धि करते हुए अन्त में मोक्षगति को प्राप्त हो गए । सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि जिस प्रकार मैंने भगवान् सुना उसी प्रकार मैंने तेरे प्रति कह दिया । इत्यादि । 1 से अष्टादशाध्ययन समाप्त । 1
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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