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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७६७ PAAAAAmr "टीका–क्षत्रिय राजर्षि कहते हैं कि हे मुने ! धैर्यवान जीव, किस प्रकार कुहेतुओं से उन्मत्त की तरह पृथिवी पर विचरे ? कभी नहीं विचर सकता अर्थात् विचारशील पुरुष उन्मत्त की तरह कदापि असम्बद्ध भाषण नहीं कर सकता । इस कथन का तात्पर्य यह है कि जैसे उन्मादग्रस्त जीव के शब्द अर्थ-शून्य होते हैं उसी प्रकार इन क्रियावादी मतों के विचार भी तत्त्व से शून्य हैं तथा मोक्ष मार्ग के प्रतिकूल हैं। इसी बात को जानकर इन पूर्वोक्त भरतादि महापुरुषों ने इन मतों की अपेक्षा करके जिनशासन में जो विशेषता थी उसको समझा और तदनुसार आचरण करते हुए वे शूरवीर और दृढ़ पराक्रमी हुए अर्थात् संयम का भली भाँति आराधन करके मोक्ष को गए । अतः हे मुने ! जैसे उन्होंने जिन शासन में अपने चित्त को स्थिर करके अभीष्ट पद को प्राप्त किया उसी प्रकार तू भी उक्त शासन में अपने चित्त को स्थिर करके विचरता हुआ अभीष्ट पद को प्राप्त करने का यत्न कर । सारांश यह है कि संयमवृत्ति को ग्रहण करके बड़ी सावधानता से विचरना चाहिए किन्तु उन्मत्त की तरह विचरना ठीक नहीं, तथा जिस प्रकार उन्मत्त का कथन प्रामाणिक नहीं होता उसी प्रकार इन प्रवादियों के विचार भी विश्वास करने के योग्य नहीं हैं। अब फिर इसी विषय में कहते हैंअच्चन्तनियाणखमा, एसा मे भासिया वई । अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्सन्ति अणागया ॥५३॥ अत्यन्तनिदानक्षमाः , सत्या मया भाषिता वाक् । अतारीषुस्तरन्त्येके , तरिप्यन्त्यनागताः ॥५३॥ पदार्थान्वयः-अच्चन्त-अत्यन्त नियाण-कारण से खमा-क्षमासमर्थ एसा-यह मे-मैंने वई-वाणी भासिया-भाषण की अतरिंसु-भूतकाल में तर गए . एगे-कई एक तरिस्सन्ति–तरेंगे अणागया-अनागतकाल में तरंतेगे-और कई एक वर्तमान काल में तर रहे हैं। मूलार्थ-कर्ममल के शोधन में अत्यन्त समर्थ यह वाणी मैंने तुम्हारे प्रति कही है, इस वाणी के द्वारा भूतकाल में कई एक जीव तर गए, भविष्यकाल में कई एक तरंगे और वर्तमान में कई एक तर रहे हैं।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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