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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[ अष्टादशाध्ययनम्
टीका-प्रस्तुत गाथा में, महाबल नाम के राजर्षि का उग्र तप के अनुष्ठान द्वारा मोक्षरूप लक्ष्मी को प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है। अर्थात् उसने आत्मलिप्तकर्ममल को दूर करने के लिए स्वतःप्राप्त कामभोगादि विषयों का परित्याग करके बड़ा उग्र तप किया और अन्त में सर्वोत्तम मोक्षश्री को अपने मस्तक पर धारण किया। तात्पर्य यह है कि सर्व प्रकार के कर्मबन्धनों को तोड़कर वह मोक्ष को गया। यहां पर इतना स्मरण रखना चाहिए कि यह सब कथन भावी उपचार नैगमनय के मत से किया गया है, क्योंकि महाबल कुमार का वर्णन भगवती–व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के एकादशवें शतक के दशवे उद्देश में किया हुआ है, वह सुदर्शन सेठ के पूर्व भव का ही कथन है । तथा उक्त गाथा में दिया हुआ 'अहाय' यह आर्ष प्रयोग है जो कि 'आदित' पद के स्थान पर ग्रहण किया गया है । तथा यदि 'आदाय' पद. पढ़ा जावे तो उसका 'गृहीत्वा' यह क्त्वा प्रत्ययान्त प्रतिरूप होगा। इसके अतिरिक्त
सिरसासिरं' का तात्पर्य यह है कि उसने सिर देकर मोक्ष लिया अर्थात् सर्वोत्तम 'केवलज्ञान रूप लक्ष्मी को प्राप्त करके ही छोड़ा।
इस प्रकार पूर्वोक्त १७ गाथाओं के द्वारा इन महापुरुषों के संयम धारणविषयक उदाहरण देकर अब दूसरे ज्ञातव्य विषय का वर्णन करते हैं
कहं धीरो अहेऊहिं, उम्मत्तो व महिं चरे। एए विसेसमादाय, सूरा दढपरक्कमा ॥५२॥ कथं धीरोऽहेतुभिः, उन्मत्त इव महीं चरेत् । एते विशेषमादाय, शूरा . दृढपराक्रमाः ॥५२॥
पदार्थान्वयः-कह-कैसे धीरो-धैर्यवान् अहेऊहिं-कुहेतुओं से उम्मत्तोउन्मत्त व-की तरह महि-पृथिवी पर चरे-विचरे एए-ये पूर्व कहे गए (भरतादि राजे) विसेसम्-विशेषता को आदाय-ग्रहण करके सूरा-शूरवीर दढपरक्कमा दृढ़ पराक्रम वाले हुए।
मूलार्थ हे मुने ! धैर्यवान् पुरुष, कुहेतुओं से उन्मत्त की तरह क्या पृथिवी पर विचर सकता है ? अर्थात् नहीं विचर सकता । ये पूर्वोक्त भरतादि महापुरुष इसी विशेषता को लेकर शूरवीर और दृढ़ पराक्रम वाले हुए हैं।
" पणन करत है-
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