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अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
[७६५ को तु-जो गुणसमिद्धं-सर्व गुणों से युक्त था उसको पयहित्तु-छोड़कर महायसोमहान् यश वाला।
मूलार्थ—उसी प्रकार से उत्तमकीर्ति और महान यश वाला विजय नामा राजा भी सर्व-गुण-सम्पन्न राज्य को छोड़कर प्रवजित हो गया अर्थात् राज्य को छोड़कर संयम ग्रहण करके केवलज्ञान को प्राप्त करता हुआ मुक्त हो गया।
टीका-इस गाथा में विजय नाम के दूसरे बलदेव की प्रव्रज्या का उल्लेख किया है अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए उसने भी सांसारिक विषयभोगों का परित्याग करके संयम को धारण किया जिसके फल स्वरूप वह मोक्ष को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में जो 'अणटाकित्ति' पद दिया गया है उसका अर्थ करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं—'आर्षत्वात्-अनार्तः–आर्तध्यानविकलः, कीर्त्यादीनानाथादिदानोत्थया प्रसिद्धोपलक्षितः सन् । यद्वा अनार्ता-सकलदोषविगमतो अवाधिता कीर्तिरस्येत्यनार्त्तकीर्तिः सन् , पठ्यते च 'आणट्ठाकिइपव्वइत्ति' आज्ञा—आगमोऽर्थशब्दस्य हेतुवचनस्यापि दर्शनादर्थो—हेतुरस्याः सा तथा विधा आकृतिरर्थान्मुनिवेषात्मिका यत्र तदाज्ञार्थाकृतिः' । अर्थात् आर्त्तध्यान से रहित वा आगमोक्त आज्ञा के पालने वाला, तथा दीनादि की रक्षा करने से जिसकी कीर्ति सर्व प्रकार से विस्तृत हो रही है इत्यादि। ___ अब महाबल राजा का चरित्र वर्णन करते हैं यथातहेवुग्गं तवं किच्चा, अव्वक्खित्तेण चेयसा। महब्बलो रायरिसी, अदाय सिरसा सिरं ॥५१॥ तथैवोयं तपः कृत्वा, अव्याक्षिप्तेन चेतसा । महाबलो राजर्षिः, आदाय शिरसा श्रियम् ॥५१॥ ____ पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार उग्गं-प्रधान तवं-तप किच्चा-करके अव्वक्खित्तेण-अव्याक्षिप्त चेयसा-चित्त से महब्बलो-महाबल रायरिसी-राजर्षि अदाय-ग्रहण करके सिरसा-शिर से सिरं-मोक्षरूप लक्ष्मी को।
मूलार्थ—उसी प्रकार महाबल नामा राजर्षि ने उग्र तप करके अव्याक्षिप्त चित्त से मोक्षरूप लक्ष्मी को ग्रहण किया।