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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ अष्टादशाध्ययनम्
में एकछत्र राज्य स्थापन किया । इसके अनन्तर उस भाग्यवान् ने अपने समस्त राज्यवैभव का परित्याग करके तप और संयम का आराधन करते हुए मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया । एकच्छत्र कहने का तात्पर्य यह है कि ३२ हजार देश के राजे उनकी आज्ञा का पालन करते थे, उनमें जो अहंकार युक्त थे उनका अहंकार भी जाता रहा । इस प्रकार की समृद्धि के होने पर भी उन्होंने इस संसार का परित्याग करके जिनद धारण की और तप संयम के आराधन से मोक्ष को प्राप्त किया । सूत्र में आये हुए 'अनुत्तरगति' शब्द से मोक्ष ही अभिप्रेत है, क्योंकि मोक्षगति से प्रधान अन्य कोई गति नहीं । इसी अभिप्राय से बार २ अनुत्तर गति शब्द का प्रयोग किया गया है
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अब ग्यारहवें चक्रवर्ती के विषय में कहते हैं—
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अन्निओ रायसहस्सेहिं, सुपरिच्चाई दमं चरे । जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४३ ॥ अन्वितो राजसहस्त्रैः, सुपरित्यागी दममचारीत् । जयनामा जिनाख्यातां प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ॥४३॥
पदार्थान्वयः –—–— रायसहस्सेहिं-हजारों राजाओं से अनिओ-युक्त सुपरिच्चाई - भली प्रकार से संसार को छोड़कर दमं - इन्द्रियदमन चरे-करके जयनामो - जय नामा चक्रवर्ती जिणक्खायं - जिनेन्द्रदेव की कही हुई, अणुत्तरं - प्रधान गई - गति को पत्तो - प्राप्त हुआ ।
मूलार्थ - जय नामा चक्रवर्ती, हज़ारों राजाओं से युक्त और सम्यक् प्रकार से राज्यादि वैभव का परित्याग करने वाला संयम धर्म का आचरण करके जिनभाषित सर्वप्रधान मोक्षगति को प्राप्त हुआ ।
टीका- - जय नाम से विख्यात ग्यारहवें चक्रवर्ती ने हजारों राजाओं के साथ संसार के विनाशशील विषयभोगों का परित्याग करके तप के अनुष्ठान द्वारा आत्मशुद्धि करते हुए अविनाशी मोक्ष सुख को प्राप्त किया । इस कथन का तात्पर्य यह है कि संसार के विषयभोगों को तुच्छ समझकर उनसे अपने मन को हटाकर केवल परम कल्याणरूप और विनाश रहित जो मोक्षपद है उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रत्येक विचारशील पुरुष