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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ७५७ • अत्यन्त आसक्त होने के कारण घोर कर्मों के उपार्जन से वह सातवें नरक में गया । प्रस्तुत प्रकरण में प्रायः मोक्षगामी आत्माओं के अधिकार का वर्णन अभिप्रेत होने . से उसका उल्लेख नहीं किया गया । तथा पद्म नामा नवमा चक्रवर्ती, विष्णुकुमार के प्रयोग से मारे गए नमुचि से भयभीत होकर भारतवर्ष उत्तमवास और लोकोत्तर— भोगों का परित्याग करके तप के आचरण में प्रवृत्त हो गया, जिस कारण वह समस्त कर्मों के बन्धन को तोड़कर सर्वप्रधान मोक्ष पद को प्राप्त हुआ । तात्पर्य कि, नमुचि महानास्तिक था । उसने जैनधर्मानुयायियों को अपने राज्य से बाहिर निकल जाने का आदेश कर रक्खा था । उस समय श्रीविष्णुकुमार ने ही नमुचि से श्रीसंघ को निर्भय किया था अर्थात् नमुचि को मारकर उसके उपद्रवों से श्रीसंघ को बचाया था । महापद्म चक्रवर्ती भी विष्णुकुमार के उसी प्रयोग से दीक्षित होकर तपश्चर्या में प्रवृत्त होते हुए अन्त मुक्त हो गए। इसका विस्तृत वर्णन देखना हो तो अन्य वृत्तियों में से देख लेना । तथा कई एक वृत्तिकारों ने उक्त गाथा का उत्तरार्द्ध इस प्रकार दिया है- 'चइत्ता उत्तमे भोए, · महापउमो तवं चरे । अब दशवें चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं एगच्छत्तं पसाहित्ता, महिं हरिसेणो मणुस्सिन्दो, पत्तो माणनिसूरणो । गइमणुत्तरं ॥४२॥ एकच्छत्रां हरिषेणो माननिषूदनः । गतिमनुत्तराम् ॥४२॥ प्रसाध्य, महीं मनुष्येन्द्रः, प्राप्तो पदार्थान्वयः—एगच्छत्तं - एक छत्र महिं पृथिवी को पसाहित्ता - वश करके माणनिसूरणो-वैरियों के मान का विनाश करने वाला हरिसेणो- हरिषेण मणुस्सिन्दोमनुष्यों का इन्द्र -- राजा अणुत्तरं - प्रधान गई -गति को पत्तो - प्राप्त हुआ । मूलार्थ — वैरियों के मान का मर्दन करने वाला और पृथिवी पर एकच्छत्र राज्य करके हरिषेण नामा चक्रवर्ती अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ । टीका- हरिषेण नामा चक्रवर्ती ने प्रथम छः खंड पृथिवी का साधन किया 1 उसमें अहंकार युक्त जितने भी राजा थे उन सबका मान-मर्दन करके समस्त भारतवर्ष
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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