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अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[७५६ को उद्यत रहना चाहिए । यही उसका परम ध्येय है। यहां पर वृत्तिकारों ने 'चरे' के दो प्रतिरूप दिये हैं। एक 'अचारीत्' दूसरा 'चरित्वा' अर्थात् एक लुङ् का दूसरा 'क्त्वा' का प्रयोग है। इसमें पाठकों को जैसा अर्थ करना अभीष्ट हो वैसे ही वे प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि तात्पर्य में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। - इस प्रकार दश चक्रवर्ती राजाओं का उदाहरण देने के अनंतर अब एक दर्पयुक्त राजा का उदाहरण देते हैं- .
दसण्णरज्जं मुइयं, चइत्ता णं मुणी चरे। दसण्णभद्दो निक्खन्तो, सक्खंसक्केण चोइओ ॥४४॥ दशार्णराज्यं मुदितं, त्यक्त्वा मुनिरचरत् । दशार्णभद्रो निष्क्रान्तः, साक्षाच्छक्रेण चोदितः ॥४४॥ ... पदार्थान्वयः-दसएण-दशार्ण देश का रज-राज्य मुइयं-प्रमोद वालाउसको चइत्ता-छोड़कर मुणी-मुनिवृत्ति में चरे-विचरता हुआ दसएणभद्दो-दशार्णभद्र राजा निक्खंतो-धर्म के लिए संसार से निकला सक्खं-साक्षात् सकेण-शक्रेन्द्र के द्वारा चोइओ-प्रेरित किया हुआ ।
___ मूलार्थ-दशार्ण देश के प्रमोदयुक्त राज्य को छोड़कर, दशार्णभद्र नामा राजा. साक्षात् इन्द्र के द्वारा प्रेरित किया गया धर्म के लिए संसार से निकला । अर्थात् प्रमोदपूर्ण राज्यवैभव को त्याग कर धर्म में दीक्षित हो गया।
टीका-एक समय पर महाराजा दशार्णभद्र की राजधानी में बाहर के किसी उद्यान में भगवान महावीर स्वामी पधारे, तब उनको वन्दनार्थ जाने का विचार करते हुए उक्त राजा के मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि मैं आज इस प्रकार के समारोह के साथ जाकर भगवान को वन्दना करूँ कि जिस प्रकार से आज तक किसी ने न की हो। तदनुसार महाराजा दशार्णभद्र, बड़े समारोह से अपनी चतुरंगिणी सेना को साथ लेकर बड़े अभिमान से भगवान के दर्शन को प्रस्थित हुए। अर्थात् चल पड़े। इधर शक्रेन्द्र ने भी राजा दशार्णभद्र के भावों को उपयोग देकर अपने ज्ञान में देखा और विचारा कि भगवान तो इन्द्रादि देवों के भी पूज्य हैं तो फिर इसने