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अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः-इक्खागु-इक्ष्वाकु राय-राज्य-वंश-में वसभो-वृषभ के समान कुन्थू नाम-कुंथु नाम वाले नरेसरो-नरेश्वर विक्खायकित्ती-विख्यातकीर्ति धिइमं-धृतिमान् मुक्खं-मोक्ष को गओ-प्राप्त हुए अणुत्तरं-जो प्रधान है।
मूलार्थ-इक्ष्वाकु वंश में वृषभ के समान, विख्यात कीर्ति वाले भगवान् कुंथुनाथ छठे चक्रवर्ती-संयम का आराधन करके-मोक्षरूप प्रधान गति को प्राप्त हुए।
टीका-इस गाथा में छठे चक्रवर्ती और अठारहवें तीर्थंकर भगवान् कुंथुनाथ का उल्लेख किया गया है। भगवान् कुंथुनाथ इक्ष्वाकु वंश में वृषभ के समान अर्थात् सर्वोत्तम महापुरुष हुए हैं। ये अपनी दिगन्तव्यापिनी कीर्ति और चक्रवर्ती की पदवी से अलंकृत होते हुए तीर्थंकर पद को प्राप्त करके सर्वप्रधान मोक्ष गति को प्राप्त हुए। सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने उक्त गाथा के उत्तरार्द्ध का पाठ इस प्रकार माना है'विक्खायकित्ति भयवं, पत्तो गइमणुत्तरं-विख्यातकीर्तिर्भगवान् , प्राप्तो गतिमनुत्तराम्'। तथा अन्य वृत्तिकारों को भी यही पाठ अभिमत है, परन्तु वृहद्वृत्ति के कर्ता को तो ऊपर का पाठ ही स्वीकृत है । अस्तु, दोनों ही पाठों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है।
अब सातवें चक्रवर्ती के सम्बन्ध में कहते हैंसागरन्तं जहित्ता णं, भरहवासं नरेसरो। अरो य अरयं पत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं ॥४०॥ सागरान्तं त्यक्त्वा, भारतवर्ष नरेश्वरः ।
अरश्चारजः प्राप्तो, प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ॥४०॥ - पदार्थान्वयः-सागरन्तं-सागरपर्यन्त पृथिवी को जहित्ता-छोड़कर और भरहवासं-भारतवर्ष को नरेसरो-नरेश्वर य-पुनः अरो-अरनामा चक्रवर्ती अरयंविषय-विकार को त्यागकर अथवा अरत होकर-कर्मरज से रहित होकर पत्तो-प्राप्त हो गया अणुत्तरं-प्रधान गइं-गति को णं-वाक्यालंकार में।
१ 'अरयं' ति–रत्तस्य रजसोवाऽभावरूपमरत्तमरजो वा पाठान्तरत्तोऽरसंवा शृंगारादिरसाभावमिति वृत्तिकारः।