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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[ अष्टादशाध्ययनम्
دا بوو و وو میحه حاج حسین تهیه می شا مي مي مي مية مي حره م جی سی سیا سره سي، سمیرا میری، با انجام و اجاره میره می میریا
चक्रवर्ती महड्डियो-महती समृद्धि वाला सन्ती-शांतिनाथ सन्तिकरो-शान्ति के देने वाला लोए-लोक में अणुत्तरं-प्रधान गई-गति को पत्तो-प्राप्त हुआ।
मूलार्थ-शान्ति के देने वाले शान्तिनाथ नामा महासमृद्धिशाली चक्रवर्ती इस लोक में भारतवर्ष को छोड़कर अर्थात् अति रमणीय कामभोगों का परित्याग करके प्रधान गति ( मोक्ष) को प्राप्त हुए ।
टीका-इस गाथा में शांतिनाथ नाम के पाँचवें चक्रवर्ती और सतारहवें तीर्थंकर देव का उल्लेख है। श्री शांतिनाथ भगवान् भी भारतवर्ष को छोड़कर
और अपनी चक्रवर्ती की लोकोत्तर समृद्धि का त्याग करके संयम का आराधन करते हुए मुक्त हो गए । इनका संक्षिप्त जीवन इस प्रकार है-श्री शांतिनाथ भगवान के जीव ने मेघरथ नामक राजा के भव में एक कपोत की रक्षा की थी और फिर दीक्षित होकर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया था । वहाँ से अपनी आयु की स्थिति को पूर्ण करके वे सर्वार्थसिद्ध देवलोक में जाकर उत्पन्न हुए । वहाँ से च्यव कर वे विश्वसेन राजा की अचिरा नाम की पट्टराणी की कुक्षि से उत्पन्न हुए। उस समय कुरुदेश के हस्तिनापुर नगर और देश में अपस्मार मृगी का भयंकर रोग व्याप्त हो रहा था, श्री शांतिनाथ भगवान के जीव के गर्भ में आने पर एकदा भगवान् की माता प्रासाद पर खड़ी होकर नगर की ओर देख रही थीं तब उनके शरीर से स्पर्शित होकर जो वायु उस देश व नगर को गई उसके प्रभाव से उस नगर और देश का वह रोग जाता रहा । इस कारण से महाराजा विश्वसेन ने जन्म के पश्चात् भगवान् का 'श्री शान्तिनाथ' यह नामकरण किया । फिर वे चक्रवर्ती की पदवी को भोगकर तीर्थंकर देव हुए और मोक्ष को गए।
अब छठे चक्रवर्ती के विषय में कहते हैंइक्खागुरायवसभो , कुन्यू नाम नरेसरो। विक्खायकित्ती धिइमं, मुक्खं गओ अणुत्तरं ॥३९॥ इक्ष्वाकुराजवृषभः , कुन्थुनामा नरेश्वरः। विख्यातकीर्तिधृतिमान् , मोक्षं गतोऽनुत्तरम् ॥३९॥