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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ अष्टादशाध्ययनम्
है उडिओ - उत्थित हो गया हूँ अहोरायं - अहोरात्र, रात दिन धर्म-कार्यों में इइ - इस प्रकार विजा - विद्वान् अथवा जानकर तवं - तप को चरे - आचरण करे ।
मूलार्थ - मैं सावध प्रश्नों से तथा गृहस्थों के कार्यों से निवृत्त हो गया हूँ । रात दिन धर्म - कार्यों में उद्यत हूं, इस प्रकार जानकर विद्वान् पुरुष तप का आचरण करे ।
टीका - क्षत्रिय राजर्षि, संजय मुनि से कहते हैं कि मैं गृहस्थों के सावद्य प्रश्न तथा गृह-सम्बन्धि कार्यों से निवृत्त हो गया हूँ अर्थात् जो गृहस्थ मुझ से कोई सावद्य प्रश्न पूछते हैं अथवा मेरे पास अपने व्यापारादि सम्बन्धि दुःखों का वर्णन. करते तथा विवाहादि विषयक चिन्ताओं का प्रकाश करते हैं, मैं उनसे किसी प्रकार
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का वार्त्तालाप ही नहीं करता । क्योंकि मैं इन बातों को छोड़ चुका हूँ । विपरीत इसके मैं तो रात दिन धर्मकार्यों में ही तल्लीन रहता हूँ । इस प्रकार जानकर विद्वान् पुरुष सदा तप का ही आचरण करे । प्रस्तुत गाथा में राजर्षि ने साधु का कर्त्तव्य, अपनी क्रिया तथा संजय मुनि को शिक्षा इन तीनों बातों का उपदेश दिया है। तथा यहां पर इतना और भी स्मरण रहे कि शुभाशुभ फल दर्शक प्रश्नों के विषय में ही निषेध समझना परन्तु धर्म-सम्बन्धि प्रश्नों का निषेध नहीं एवं गृहस्थों के कार्यों का निषेध है, उनको योग्य शिक्षा देने का निषेध नहीं ।
तथा च
जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्धेण चेयसा । ताई पाउकरे बुद्धे, तं नाणं जिणसासणे ॥३२॥
यच्च मां पृच्छसि काले, सम्यक् शुद्धेन चेतसा । तत् प्रादुरकरोद् बुद्धः, तज्ज्ञानं जिनशासने ॥३२॥
पदार्थान्वयः – जं- जो च - और मे - मुझसे पुच्छसी - तू पूछता है काले-. प्रस्ताव में सम्मं - सम्यक् सुद्धे - शुद्ध चेयसा - चित्त से ताई - वह बुद्ध ने पाउकरेप्रकट कर दिया है [ अथवा बुद्ध रूप मैं प्रकट करता हूँ ] तं - वह नाणं-ज्ञ जिण सासणे - जिनशासन में विद्यमान है ।
- ज्ञान