________________
अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[७४७
य-पुनः सव्वत्था-सर्व क्षेत्रादि के विषय व्यापार इइ-इस प्रकार विजाम्-सम्यक् ज्ञान अणु-अंगीकार करके संचरे-विचर ।
___ मूलार्थ-क्रियावादी प्रभृति लोगों की नाना प्रकार की रुचि और अभिप्राय का साधु सर्वथा त्याग कर देवे । तथा सर्व स्थानों में जो अनर्थकारी क्रियाएं हैं उन्हें भी छोड़ देवे । इस प्रकार सम्यग् ज्ञान को अंगीकार करके साधु विचरे अथवा तू विचर।
टीका-इस गाथा में क्षत्रिय ऋषि ने संजय मुनि को उपदेश करने के ध्यान से संयमशील साधुमात्र के लिए बहुत ही मूल्य की बातें कही हैं । राजर्षि कहते हैं कि हे मुने ! इस संसार में जितने भी क्रियावादी प्रभृति मत हैं, उनकी नाना प्रकार की रुचि और भिन्न २ प्रकार के अभिप्राय हैं। उन सब को छोड़कर अर्थात् उन सब की उपेक्षा करके तू केवल संयम मार्ग में ही विचर ? क्योंकि इनमें कोई तो नास्तिक है और कोई आस्तिक है, तथा कोई क्रियावाद का स्थापक है और कोई उत्थापक है । अतः किसी की ओर भी तेरे को लक्ष्य नहीं देना चाहिए। तथा हिंसा आदि जो अनर्थ के कार्य हैं और सर्व प्रकार के जो गृह क्षेत्रादि विषयक व्यापार हैं, उन सब का परित्याग कर देना चाहिए । इस प्रकार सम्यग् ज्ञान को अंगीकार करके तू केवल संयम मार्ग में ही विचरण कर । तात्पर्य कि इन वादियों के सम्पर्क से संयम से विचलित होने की आशंका रहती है, इसलिए इन की बातों को सुनना अनावश्यक ही नहीं अपितु अनर्थकारी भी है। . इसके अनन्तर राजर्षि फिर कहते हैं किपडिकमामि पसिणाणं, परमंतेहिं वा पुणो। अहो उढिओ अहोरायं, इइ विजा तवं चरे ॥३१॥ प्रतिक्रमामि प्रश्नेभ्यः, परमन्त्रेभ्यो वा पुनः ।
अहो उत्थितोऽहोरात्रम्, इति विद्वान् तपश्चरेत् ॥३१॥ ____ पदार्थान्वयः–पडिक्कमामि-निवृत्त हो गया हूँ पसिणाण-प्रश्नों से परमंतेहि-तथा गृहों के कार्यों से वा-समुच्चय अर्थ में है पुणो-फिर अहो-विस्मय