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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ अष्टादशाध्ययनम्
है
: - एक योजन लंबा और एक योजन चौड़ा कूप, युगलियों के सूक्ष्म केशों से इस प्रकार भरा जाने कि एक बाल के असंख्यात खंड कल्पना करके उन खंडों
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से उस कूप को भरपूर करना चाहिये । फिर जब वह कूप भर जावे तो उसमें से सौ २ वर्ष के बाद एक २ खंड निकालते हुए जब वह कूप खाली हो जावे तब एक पल्योपम काल होता है । इसी की पालि संज्ञा है, इसी प्रकार जब दश कोटाकोटि कूप खाली हो जावें तो उसका एक सागरोपम काल होता है । इसी की महापालि संज्ञा है । फिर राजर्षि कहते हैं कि उस ब्रह्मलोक से च्यवकर अर्थात् अपनी देवसम्बन्धि आयु को समाप्त करके मैं इस मनुष्य जन्म को प्राप्त हुआ हूँ । इस विषय का मुझे जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा अनुभव हुआ है और इसी ज्ञान के द्वारा मैं अपनी तथा दूसरों की भव - परिस्थिति को भली भाँति जान सकता हूँ, इसलिए वादियों का जो परलोक — पुनर्जन्म के विषय में अविश्वास है वह सर्वथा अज्ञानमूलक है । कारण कि जिस प्रकार मैं अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त को जानकर उस पर पूर्ण विश्वास करता हूँ उसी प्रकार दूसरों की जन्म परंपरा को भी मैं स्वीकार करता हूँ । अतः परलोक का अस्तित्व अबाधित है ।' तथा क्रिया कांड की सप्रयोजनता भी परलोक के अस्तित्व पर ही निर्भर है । अठाईसवीं गाथा में जो 'वरिसस ओवमा ' 'वर्ष शतोपमाः' पद पढ़ा गया है उसमें मध्यम पद लोपी तत्पुरुष समास है । यथा— 'वर्ष शत जीवित उपमा यस्य स वर्ष शतोपमाः' ।
क्षत्रिय राजर्षि अब साधु के कुछ विशेष कर्त्तव्य का वर्णन करते हुए फिर कहते हैं
नाणारुडं च छन्दं च, परिवजेज संजओ । अट्ठा जे य सव्वत्था, इइ विजामणुसंचरे ॥३०॥
नानारुचिं च छन्दश्च परिवर्जयेत् संयतः ।
अनर्था ये च सर्वार्थाः, इति विद्यामनुसंचरे ॥३०॥ यः - नाणा - नाना प्रकार रुई - रुचि च - और छन्दं - अभिप्राय च
पदार्थान्वयःसमुच्चय में परिवञ्जेज - छोड़ देवे संजओ - साधु अट्टा - हिंसादि अनर्थ जे- जो
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