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अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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से चुए बम्भलोगाओ, माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिं च, आउं जाणे जहा तहा ॥२९॥ अहमासं महाप्राणे, द्युतिमान् वर्षशतोपमः। या सा पालिमहापालिः, दिव्या वर्षशतोपमा ॥२८॥ स च्युतो ब्रह्मलोकात्, मानुष्यं भवमागतः । आत्मनश्च परेषां च, आयुर्जानामि यथा तथा ॥२९॥
पदार्थान्वयः अहं-मैं आसि-था महापाणे-महाप्राण विमान में जुइमं-द्युति वाला परिससओवमे-सौ वर्ष की उपमा वाला जा-जो सा-वह पालि-पल्योपम वा महापाली-सागरोपमवाली दिव्या-देवसम्बन्धि स्थिति वरिस-वर्ष सओवमा-सौ की उपमावाली । से-वह अब चुए-च्युत होकर बंभलोगाओ-ब्रह्मलोक से माणुस्संमनुष्य संबंधी भव-भव में आगए-आ गया अप्पणो-अपने य-और परेसिं-पर के जन्म को आउं-आयु को जहा-जैसे है तहा-उसी प्रकार जाणे-जानता हूँ।
___ मूलार्थ-* महाप्राण विमान में अतिप्रकाशवान और सौ वर्ष की उपमा वाला देव था, जो कि सौ वर्ष की यह देवसम्बन्धि स्थिति पल्योपम वा सागरोपम संज्ञा वाली है । अब मैं वहाँ से च्यवकर-ब्रह्मलोक से च्युत होकर मनुष्य भव में आया हूँ तथा मैं अपनी और दूसरों की आयु को जैसे है, वैसे ही जानता हूँ।
टीका-इस गाथा युगल में राजर्षि ने अपने जातिस्मरण ज्ञान का परिचय देते हुए परलोक और आत्मा की भव-परम्परा के अस्तित्व को प्रमाणित किया है। राजर्षि ने कहा कि हे मुने ! मैं ब्रह्मदेवलोक के महाप्राण विमान में देव था, तथा देवों की प्रभा से युक्त था । जैसे इस लोक में सौ वर्ष की उत्कृष्ट आयु मानी गई है उसी प्रकार मैं देवलोक में उत्कृष्ट आयु से युक्त था अर्थात् मेरी आयु दस सागर प्रमाण थी। इन देवलोकों में पल्योपम और सागरोपम संज्ञा वाली आयु बतलाई गई है इसलिए देव सम्बन्धि सौ वर्ष को उत्कृष्ट आयु का मान दस सागर प्रमाण होता है। शास्त्रों में पल्योपम और सागरोपम की व्याख्या इस प्रकार से की गई