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________________ ७४४] [ अष्टादशाध्ययनम् उत्तराध्ययनसूत्रम् अब फिर इन्हीं के विषय में कुछ और विशेष कहते हैं सव्वे ते विइया मज्झं, मिच्छादिट्टी अणारिया । विजमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पयं ॥ २७॥ सर्वे ते विदिता मया मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः विद्यमाने परे लोके, सम्यग् जानाम्यात्मानम् ॥२७॥ 1 पदार्थान्वयः—सब्वे-सब ते - वे विइया - जान लिये मज्भं-मैंने मिच्छादिट्ठी - मिध्यादृष्टि अणारिया - अनार्य हैं विजमाणे - विद्यमान होने पर परे लोएपरलोक के सम्म—सम्यक् — भली प्रकार जाणामि - जानता हूँ अप्पयं - आत्मा को 1 मूलार्थ — मैंने उन सर्व वादियों के सिद्धान्त को सम्यक् प्रकार से जान लिया । वे सब मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं । परलोक के विद्यमान होने से मैं आत्मा को जानता हूँ । टीका - क्षत्रिय ऋषि कहते हैं कि मैंने इन क्रियाबादी और अक्रियावादी प्रभृति मृतों को अच्छी तरह से समझ लिया है। इनके प्ररूपक सब मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं । तात्पर्य कि मिध्यात्व में प्रवृत्त होने से वे मिध्यादृष्टि और अनार्योचित कर्मों का आचरण करने के कारण अनार्य कहे वा माने जा सकते हैं । कारण क इन लोगों ने ऐहिक सुख को ही सर्वोपरि मान रक्खा है । अतएव परलोक का अस्तित्व इनकी दृष्टि से ओझल हो रहा है। आत्मा के सद्भाव और उसकी भवपरम्परा पर इनको विश्वास नहीं होता, जिससे कि ये ऐहिक कामभोगों में आसक्त होकर नाना प्रकार के अनर्थोत्पादक कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं परन्तु मैं परलोक की सत्ता अथ च • आत्मा की भवपरम्परा को भली भाँति जानता हूँ । आप किस प्रकार जानते हैं ? इसका उत्तर क्षत्रियराजर्षि निम्नलिखित दो गाथाओं के द्वारा देते हैं। यथा अहमासी महापाणे, जुइमं वरिसस ओवमे । जा सा पालीमहापाली, दिव्वा वरिसस ओवमा ॥२८॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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