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अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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असत्-पाप-कर्म का त्याग तथा सत् की प्ररूपणा और आर्य धर्म का अनुसरण करना ही विचारशील पुरुष के लिए सर्वथा कल्याणप्रद है, यह इसका फलितार्थ है।
इसके अनन्तर क्षत्रिय ऋषि संजय मुनि से फिर कहते हैं किमायावुइयमेयं तु, मुसा भासा निरत्थिया । संजममाणोऽवि अहं, वसामि इरियामि य ॥२६॥ मायोदितमेतत् तु, मृषा भाषा निरर्थिका । संयच्छन्नप्यहम् , वसामि ईर्यायां च ॥२६॥
पदार्थान्वयः-माया-माया से वुइयम्-कहा हुआ एयं-यह तु-वितर्क में तथा निश्चय में है मुसा-मृषा भासा-भाषा निरत्थिया-निरर्थक संजममाणोऽविसंयम में रहा हुआ भी अहं-मैं वसामि-बसता हूँ य-और इरियामि-गोचरी आदि के लिए जाता हूँ। ..
मूलार्थ हे मुने ! क्रियावादी प्रभृति लोग माया से बोलते हैं । उनकी भाषा मिथ्या अतएव निरर्थक है । मैं उनकी भाषा को सुनता हुआ भी संयम में रहता हूँ, उपाश्रय में निवास करता हूँ और यत्नपूर्वक गोचरी आदि के लिए जाता हूँ। ... टीका-क्षत्रिय ऋषि संजय मुनि से कहते हैं कि हे मुने ! ये जो क्रियावादी प्रभृति लोग हैं, वे सब माया-कपट से बोलते हैं। इनकी भाषा मिथ्या अथ च निरर्थक है । अतः इनकी बातें सुनने में मैं बड़ा संयम रखता हूँ । इसी लिए उपाश्रय आदि में बसता रहता हूँ और गोचरी के लिए यत्नपूर्वक जाता हूँ। इसका अभिप्राय यह है कि मैं इन क्रियावादियों की कपटमयी भाषा को सुनने में यत्न रखता हूँ अर्थात् अपने ध्यान से च्युत नहीं होता परन्तु जो सर्वथा असत् की प्ररूपणा करते हैं, उनके कथन को तो मैं सुनता भी नहीं और सुनना चाहता भी नहीं ! क्योंकि असत् प्ररूपणा के श्रवण से मनुष्य को पापकर्मों का बन्ध होता है, जिसके कारण वह दुर्गति में जाने का अधिकारी हो जाता है। 'निरर्थिका' का अर्थ है कि जिसके सुनने से आत्मा को बोध न हो।