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| अप्रादशाध्ययनम्
श्रीवर्द्धमान् स्वामी ने स्वयं किया है, जो कि कषायरूप अग्नि के सर्वथा शान्त होने से परमनिर्वृत्ति रूप मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं ! तथा विद्याचरण से युक्त अर्थात् क्षायक ज्ञान और चारित्र से संपन्न थे एवं सत्यवक्ता और सत्यपरमार्थ से भाव • शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले, अतएव तत्त्ववेत्ता थे । यहाँ पर 'बुद्ध' शब्द भगवान् महावीर — ज्ञातपुत्र का विशेषण है । तथा उक्त गाथा के पर्यालोचन से यह भी प्रतीत होता है कि उक्त दोनों ऋषि महावीर स्वामी के अतिनिकटकालवर्ती थे । अब धर्माधर्म की फलश्रुति का वर्णन करते हैं। यथा
पडन्ति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो । दिव्वं च गईं गच्छन्ति, चरित्ता धम्ममारियं ॥ २५ ॥
उत्तराध्ययन सम
पतन्ति नरके घोरे, ये नराः पापकारिणः । दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ॥२५॥
पदार्थान्वयः—–नरए–नरक घोरे - घोर में पडंति - पड़ते हैं जे- जो नरानर पावकारिणो पाप करने वाले हैं च - और दिव्वं - देव गई - गति को गच्छंतिप्राप्त होते हैं आरियूं- आर्य धम्मं - धर्म को चरित्ता - आचरण करके ।
मूलार्थ - जो पुरुष पापकर्म करने वाले हैं, वे घोर नरक में पड़ते हैं और आर्य धर्म का अनुष्ठान करने से देवगति को प्राप्त होते हैं ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में बतलाया गया है कि जो जीव असत् की प्ररूपणा करते हैं तथा हिंसादि पापकर्म में प्रवृत्त हैं, वे घोर नरक के अतिथि होते हैं । तात्पर्य कि असत् प्ररूपणा और हिंसादि पापकर्म में प्रवृत्ति इन दोनों का फल नरक की प्राप्ति है । परन्तु जो जीव असत् प्ररूपणा और हिंसा आदि पापकर्म से पराङ्मुख होकर श्रुतचारित्र रूप आर्य धर्म का आराधन करते हैं, वे देवलोक में जाते हैं । यद्यपि सत् की प्ररूपणा और श्रुतचारित्र रूप आर्य धर्म का सम्यग् आराधनं, इनका फल मोक्ष की प्राप्ति कथन किया गया है तथापि यदि इस धर्माराधक जीव के समस्त कर्म क्षय न हुए हों अर्थात् कुछ बाकी रह गये हों तो उसका फल देवलोक की प्राप्ति ही शास्त्रों में वर्णन किया है । इसलिए असत् प्ररूपणा और
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