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________________ अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७४६ - मूलार्थ हे मुने ! सम्यग् शुद्ध चित्त से इस समय पर जो तू मुझ से पूछता है वह ज्ञान बुद्ध ने प्रकट कर दिया है । अथवा बुद्ध रूप में प्रकट करता हूँ। वह सब ज्ञान जिन शासन में विद्यमान है। टीका-क्षत्रिय मुनि, संजयमुनि से कहते हैं कि, शुद्ध चित्त होकर जो कुछ तुम मुझ से पूछते हो वह सब जिन शासन में विद्यमान है और बुद्ध ने भगवान् महावीर ने उसे प्रकट कर दिया है। अथवा जो कुछ आप मुझ से पूछते हैं वह सब मैं तुम्हारे समक्ष प्रकट करता हूँ क्योंकि वह सब ज्ञान जिन शासन में विद्यमान है और जिन शासन में सम्यक् प्रकार से स्थित होने से मैं बुद्ध हूँ। इसलिए मैं तुम से कहता हूँ । ऋषि के कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आत्मानात्म विषयक ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसको बुद्ध ने अर्थात् भगवान महावीर स्वामी ने प्रकट न किया हो तथा जो जिन शासन में विद्यमान न हो, अतः उसी के आधार पर मैं तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ । अथवा जिन शासन में सम्यक् प्रवृत्ति होने से—तदनुसार सम्यक् आचरण करने से मुझे उस ज्ञान की प्राप्ति हो गई है जिस से कि बुद्ध होता हुआ मैं तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ और तुम भी इसी प्रकार-जिन शासन में आरूढ होते हुए बुद्ध हो सकते हो। यहां पर 'ताई' तत्—यह सुप् व्यत्यय से हुआ है । और किसी २ प्रति में 'सम्म सुद्धण' के स्थान में 'सम्मं बुद्धेण' ऐसा पाठ भी देखने में आता है परन्तु अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। अब फिर श्रमणोचित कर्त्तव्य का निर्देश करते हैंकिरियं च रोअए धीरो, अकिरियं परिवजए। दिट्ठीए दिद्विसम्पन्नो, धम्मं चर सुदुच्चरं ॥३३॥ . क्रियां च रोचयेद् धीरः, अक्रियां परिवर्जयेत् । दृष्टया दृष्टिसंपन्नः, धर्म चर सुदुश्चरम् ॥३३॥ पदार्थान्वयः-किरियं-क्रिया में रोअए-रुचि करे धीरो-धीर पुरुष चपुनः अकिरियं-अक्रिया को परिवजए-त्याग देवे दिहीए-दृष्टि से दिद्विसंपन्नोदृष्टिसम्पन्न होकर धम्म-धर्म को चर-आचरण कर जो सुच्चरं-अति दुश्चर है।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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