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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अब संजय ऋषि उक्त प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देते हैं । यथा—
संजओ नाम नामेणं, तहा गुत्तेण गोयमो । गद्दभाली ममायरिया, विज्जाचरणपारगा ॥२२॥
अष्टादशाध्ययनम् ]
[ ७३६
संयतो नाम नाम्ना, तथा गोत्रेण गोतमः । गर्दभालयो ममाचार्याः, विद्याचरणपारगाः
॥२२॥
पदार्थान्वयः – संजओ – संजय नाम - प्रसिद्ध नामेण - नाम से तहा - उसी प्रकार गुत्ते - गोत्र से गोयमो - गोतम गईभाली -गर्द्धभालि मम - मेरे आयरिया - आचार्य हैं विजा-विद्या- ज्ञान चरण - चारित्र के पारगा - पारगामी ॥
मूलार्थ - संजय मेरा नाम है, गोतम मेरा गोत्र है और गर्द्धभालि मेरे आचार्य हैं, जो कि विद्या और चारित्र के पारगामी हैं ।
टीका - क्षत्रिय ऋषि के प्रश्नों का संजय ऋषि ने इस प्रकार से उत्तर दिया - १ मेरा नाम संजय है, २ मेरा गोत्र गोतम है, ३ मेरे आचार्य गर्द्धभालि मुनि हैं जो कि विद्या और चारित्र में परिपूर्ण हैं, ४ मैं विद्या और चारित्र की प्राप्ति के लिए साधु हुआ हूँ जिसका कि अंतिम फल मोक्ष है, ५ मैं अपने गुरुजनों की सेवा करता हूँ और उन्हीं का उपदेश सुनने और तदनुसार आचरण करने से मुझे विनय धर्म की प्राप्ति हुई है अर्थात् मैं विनीत बना हूँ । यद्यपि नीचे के दोनों उत्तर मूल गाथा में उपलब्ध नहीं तथापि तीसरे प्रश्न के उत्तर में ही इन दोनों का समावेश हो जाता है । तात्पर्य कि अपने आचार्य गर्द्धभालि मुनि के विद्याचारित्र की परिपूर्णता के वर्णन में ही उनकी सेवा और उनसे प्राप्त होने वाले विनयधर्म का भी अर्थतः उल्लेख आ जाता है। इसलिए सेवा और विनय के लिए पृथक् उत्तर नहीं दिया । इस प्रकार संजय मुनि के उत्तर से प्रसन्न हुए क्षत्रिय ऋषि फिर संजय मुनि से इस प्रकार कहने लगे कि—
किरियं अकिरियं विणयं, अन्नाणं च महामुणी । एएहिं चउहिं ठाणेहिं, मेयने किं पभासई ॥२३॥