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[ अष्टादशाध्ययनम्
शान्त और प्रसन्न देखने में आता है, उसी प्रकार से आपका मन भी प्रसन्न प्रतीत होता है क्योंकि मन की प्रसन्नता पर ही बाहर के स्वरूप — आकृति — की प्रसन्नता निर्भर है। बिना मन की प्रसन्नता बाह्य स्वरूप में प्रसन्नता नहीं आ सकती । इससे प्रतीत होता है कि आप अन्दर और बाहर दोनों तर्फ से प्रसन्न हैं । इसी हेतु से मैं भी प्रसन्न हूँ, यह फलितार्थ है । इसके अनन्तर के क्षत्रिय ऋषि फिर कहते हैं कि
उत्तराध्ययनसूत्रम्
किंनामे
किंगुत्ते, कस्सट्ठाए व माहणे
।
कहं पडियरसी बुद्धे, कहं विणीए त्ति वुच्चसी ॥२१॥
किं नाम किं गोत्रम्, कस्यार्थं वा माहनः । कथं प्रतिचरसि बुद्धान्, कथं विनीत इत्युच्यसे ॥२१॥
• पदार्थान्वयः – किंनामे - क्या नाम है किंगुत्ते- क्या गोत्र है व अथवा कस्साए - किस प्रयोजन के लिए माहणे - माहन हुए हो कह किस प्रकार से....:. बुद्धे - बुद्धों की पडियरसी - परिचर्या – सेवा करते हो ? कहं - किस प्रकार तुमको विणीए - विनयवान् वुच्चसि - कहा जाता है ? त्ति - ऐसे प्रश्न किये ।
मूलार्थ - आपका नाम क्या है ? आपका गोत्र कौन सा है ? किसलिए आप मान हुए हो ? किस प्रकार बुद्धों की परिचर्या करते हो ! तथा किस प्रकार से आप विनयशील कहे जाते हो ?
टीका - क्षत्रिय ऋषि ने संजय ऋषि से पाँच प्रश्न किये। जैसे कि - ( १ ) आपका नाम क्या है— नामविषयक, (२) आपका गोत्र क्या है ? गोत्र के विषय में, (३) आप किस प्रयोजन के लिए साधु हुए हो ? साधु होने के सम्बन्ध में, (४) आप किस प्रकार आचार्य प्रभृति गुरुजनों की सेवा करते हो ? गुरुओं के विषय में, और (५) आप विनयशील कैसे हो ? विनय विषयक ऐसे पाँच प्रश्न किये । माहन शब्द का यौगिक अर्थ है— मा मत, हनमार । अर्थात् मन, वचन और शरीर से किसी भी जीव के मारने का भाव जिसमें नहीं, उसे माहन ( साधु ) कहते हैं । यद्यपि मान शब्द गृहस्थ — श्रावक के लिए भी आता है तथापि इस स्थान में साधु का ही वाचक है ।