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________________ ५८४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् जाईजरामच्चुभयाभिभूया बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता । संसारचक्करस विमोक्खणट्ठा, दण ते कामगुणे विरत्ता ॥४॥ जातिजरामृत्युभयाभिभूतौ बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ संसारचक्रस्य विमोक्षणार्थं, " [ चतुर्दशाध्ययनम् " दृष्ट्वा तौ कामगुणेभ्यो विरक्तौ ॥४॥ पदार्थान्वयः – जाई - जाति जरा - बुढ़ापा मच्चु - मृत्यु के भयाभिभूया - भय से व्याप्त हुए बर्हि - संसार से बाहर विहाराभिनिविट्ठचित्ता - मोक्षस्थान में स्थापन किया है चित्त जिन्होंने संसारचकस्स - संसारचक्र के विमोक्खण्डाविमोक्षणार्थ दद्दूण-देखकर ते - वे दोनों कुमार कामगुणे - काम गुणों से विरत्ता- विरक्त हुए । मूलार्थ - जन्म, जरा और मृत्यु के भय से व्याप्त हुए, संसार से बाहर मोक्ष स्थान में जिन्होंने अपने चित्र को स्थापन किया है ऐसे दोनों कुमार साधुओं को देखकर संसारचक्र से विमुक्त होने के लिए काम भोगों से विरक्त हो गए । टीका - जब उन दोनों कुमारों ने साधुओं के दर्शन किये तब उनको विषय भोगों से उपरामता हो गई । जन्म, जरा और मृत्यु से उनको भय लगने लगा और संसारचक्र से मुक्त होने के लिये संसार से बाहर जो मोक्षस्थान है, उसमें चित्त को स्थिर करते हुए वे काम भोगों से सर्वथा विरक्त हो गए । यहां पर 'ते' यह 'तो' के अर्थ में है । अब उन दोनों कुमारों के विषय में फिर कहते हैं—
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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