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अष्टादशाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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मूलार्थ — उसने शुभ अथवा अशुभ - सुखरूप व दुःखरूप - जो भी कर्म किया है, उस कर्म से संयुक्त हुआ जीव परलोक को चला जाता है ।
टीका — मुनि कहते हैं कि राजन् ! मृत्यु होने के बाद इस जीव ने जो अच्छा या बुरा कर्म किया है, वही इसके साथ परलोक में जाता है और कोई वस्तु इसके साथ नहीं जाती । इससे सिद्ध हुआ कि संसार में स्त्री, पुत्र आदि जितने भी सम्बन्धी हैं, वे सब यहीं पर रह जाने वाले पदार्थ हैं। साथ में जाने वाला इनमें से एक भी नहीं । इसलिए इन अचिरस्थायी पदार्थों से मोह करना या इनमें आसक्त होना विवेकी पुरुष के लिए कदापि उचित नहीं । तथा साथ में जाने वाले शुभाशुभ कर्म में से उसको अशुभ का त्याग और शुभ का आचरण करना चाहिए। और तपोमय जीवन बनाकर कर्मों की निर्जरा के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए ।
के इस सारगर्भित उपदेश के बाद फिर क्या हुआ, अब इसी विषय का उल्लेख करते हैं—
सोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स अन्तिए । महया संवेगनिव्वेयं, समावन्नो नराहिवो ॥१८॥ श्रुत्वा तस्य स धर्मम्, अनगारस्यान्तिके महान्तं संवेगनिर्वेदं, समापन्नो
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नराधिपः ॥१८॥
पदार्थान्वयः — सोऊण-सुन करके सो - वह राजा तस्स-उस मुनि के धम्मं - धर्म को अणगारस्स-अनगार के अन्तिए - समीप में महया - महान् संवेग-संवेग— मोक्षाभिलाषा निव्वेयं निर्वेद – विषयविरक्ति विषयों से उपरामता को समावन्नोप्राप्त हुआ नराहिवो - नराधिप - राजा ।
मूलार्थ - उस अनगार मुनि के धर्म को सुनकर वह राजा उस अनगार के पास महान् संवेग और निर्वेद को प्राप्त हो गया ।
टीका- राजा ने, जिस समय मुनि से धर्मोपदेश को सुना, उसी समय उसमें संवेग और निर्वेद अर्थात् मोक्षविषयिणी अभिलाषा और ऐहिक कामभोगों से विरक्ति के भाव उत्पन्न हो गये । जब कि उपदेशक योग्य और उपदेश समयोचित