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[ अष्टादशाध्ययनम्
हो तथा अधिकारी भी उत्तम हो तो फिर उसको सफल होते देरी नहीं लगती। इसी लिए मुनि के उपदेश को सद्यः सफलता प्राप्त हुई । कारण कि इधर राजा भी स्वकृत अपराध की क्षमा-याचना में प्रवृत्त होने से अनुकम्पित हृदय था और उधर मुनि भी आदर्शजीवी थे । इसलिए मुनि ने जिस समय संसार की अस्थिरता और स्वार्थपरायणता का चित्र राजा के सामने खींचा, उसी समय वह राजा के स्वच्छ हृदय-पट पर अंकित हो गया अर्थात् संसार से वैराग्य हो गया । यहाँ 'महया' यह सुपुव्यत्यय से जानना ।
उत्तराध्ययनसूत्रम्
इसके अनन्तर अर्थात् वैराग्य होने के बाद राजा ने क्या किया, अब इसी विषय में कहते हैं—
संजओ चइउं रजं, निक्खन्तो जिणसासणे । गद्दभास्सि भगवओ, अणगारस्स अन्ति ॥ १९ ॥
"
संजय त्यक्त्वा राज्यं निष्क्रान्तो जिनशासने । गर्दभालेर्भगवतः
अनगारस्यान्तिके
"
पदार्थान्वयः —– संजओ - संजय राजा चइउं छोड़ करके निक्खन्तो- दीक्षित हुआ जिण सासणे - जिनशासन में गद्दभालिस गर्दभाली अणगारस्स - अनगार के अन्तिए - समीप में ।
॥१९॥
रज्जं - राज्य को
भगवओ - भगवान्
मूलार्थ – संजय राजा राज्य को छोड़कर भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन - जिनधर्म में दीक्षित हो गया ।
टीका - मुनि के उपदेश को सुनकर संसार से विरक्त हुआ वह राजा गर्दभालि नाम के उस अनगार के पास जिनशासन में दीक्षित हो गया । यहाँ पर जिनशासन का नाम लेने से अर्थात् जैनदर्शन का उल्लेख करने से सुगतादि • अन्य दर्शनों की व्यावृत्ति हो जाती है क्योंकि बौद्धग्रन्थों में बहुत सी जैन-कथाओं का बुद्ध के नाम से संग्रह किया हुआ देखा जाता है। जैसे कि भृगु पुरोहित की कथा का बौद्ध जातकों में ज्यों का त्यों उल्लेख मिलता है । इसलिए उक्त गाथा में. 'निक्खतो जिणसासणे निष्क्रान्तो जिनशासने' यह कहा गया है । इस पर