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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ अष्टादशाध्ययनम्
कीलन्ति-क्रीड़ा करते हैं अन्ने - और नरा - मनुष्य रायं - हे राजन् ! हट्टतुट्ठमलंकियाहृष्ट, तुष्ट और अलंकृत होते हुए ।
मूलार्थ - हे राजन् ! तदनन्तर उस मृत पुरुष के द्वारा उपार्जन किये हुए द्रव्य और उसकी सर्व प्रकार से सुरक्षित की हुई स्त्रियों का अन्य पुरुष, जो कि हृष्ट-पुष्ट और विभूषित हैं, उपभोग करते हैं ।
टीका — मुनि ने राजा से कहा कि हे राजन् ! जीवनकाल में इस पुरुष ने जिस धन को बड़े कष्टों से उपार्जन किया था और जिन स्त्रियों को अपने अन्तःपुर में हर प्रकार से सुरक्षित रक्खा था, मरने के बाद उसके उपार्जन किये हुए धन को तथा अन्तःपुर में सुरक्षित रहने वाली स्त्रियों को कोई दूसरे ही पुरुष अपने उपभोग में लाते हुए देखे जाते हैं । तात्पर्य कि जिन स्त्रियों की उसने जीवनकाल में हर प्रकार से रक्षा की थी, वे ही आज अन्य पुरुषों के साथ रमण करती हैं और अन्य पुरुष उनको अपनी क्रीड़ा का स्थल बनाते हैं। राजन् ! यह संसार की परिस्थिति है, जिसके लिए तू इतना उत्कंठित हो रहा है । वास्तव में संसार की स्वार्थपरायणता प्रतिक्षण विस्मय उत्पन्न करने वाली है। जो पुरुष स्त्रियों के विना और स्त्रियाँ पुरुषों के विना अपना जीवित रहना असंभव कहते थे, वे ही आज एक दूसरे को सर्वथा भूल जाते हैं । स्त्री को अपने पति और पति को अपनी स्त्री के वियोग का स्वप्न भी नहीं आता । इसलिए इस स्वार्थान्ध संसार में विचारशील पुरुष को कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। अब मृत्यु के अनन्तर जो कुछ इस जीव के साथ जाता है, उसका वर्णन करते हैं
तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥१७॥
तेनापि यत् कृतं कर्म, शुभं वा यदि वाऽशुभम् । कर्मणा तेन संयुक्तः, गच्छति तु परं भवम् ॥१७॥
पदार्थान्वयः --- तेणावि - उसने भी जं- जो सुहं - शुभ-- सुखरूप वा - अथवा कयं - किया है तेरा - उस कम्मुखा -
निश्चय ही गच्छई
ई-जाता है ।
जइ वा यदि वा दुहं - अशुभ - दुःखरूप कम्मं - कर्म कर्म से संजुतो-संयुक्त परं भवं पर भव को उ-तु