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[ अष्टादशाध्ययनम्
मृगान् क्षिप्त्वा हयगतः, काम्पिल्योद्यानकेसरे । भीतान् श्रान्तान् मृगान् तत्र, विध्यति रसमूच्छितः ॥३॥ पदार्थान्वयः – मिए - मृगों को छुहित्ता - प्रेरित करके हयगओ - घोड़े पर चढ़ा हुआ कम्पिल्लुजाण - कांपिल्यपुर के उद्यान में केसरे - केसर नाम वाले में भीए - डरते हुए सन्ते - थके हुए मिए - मृगों को तत्थ - उस वन में बहे - व्यथित करता है रसमुच्छिए - रस में मूच्छित हुआ ।
उत्तराध्ययनसूत्रम्
मूलार्थ - रसों में मूच्छित हुआ वह राजा घोड़े पर चढ़कर काम्पिल्यपुर के केसरी नाम के उद्यान में थके और डरे हुए मृगों को प्रेरित करके व्यथित करता है ।
टीका-पूर्वोक्त सेना-समूह के साथ वह काम्पिल्यपुर के केसरी उद्यान में पहुँचा और वहाँ पर रहने वाले मृगों का उसने शिकार किया क्योंकि वह रसमूच्छितजिह्वालोलुप अर्थात् मांस खाने वाला है। जो पुरुष मांस के लिप्सु होते हैं तथा मृगया में रत रहते हैं, उनका हृदय दया से सर्वथा शून्य होता है। अतएव उसने थके और भयभीत हुए मृगों को भी मारने में तनिक संकोच नहीं किया। सूत्र में पढ़े गये 'मिए' शब्द का संस्कृत में 'मितान् ' अनुवाद भी होता है। ऐसे अनुवाद में उक्त पद का यह अर्थ करना कि उस जंगल में परिमित मृग थे, जिनका राजा ने वध किया । इसके अनन्तर क्या हुआ, अब इसी का वर्णन करते हैं
अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे । सज्झायज्झाणसंजुत्तो धम्मज्झाणं झियाय ॥४॥
अथ केसर उद्याने, अनगारस्तपोधनः स्वाध्यायध्यानसंयुक्तः धर्मध्यानं ध्यायति ॥४॥
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पदार्थान्वयः -- अह - अथ केसरम्मि- केसर उज्जाणे - उद्यान में अणगारे - अनगार तवोधणे - तपोधन सज्झाय - स्वाध्याय ज्झाण-ध्यान से संजुत्तो - युक्त धम्मज्झाणं - धर्मध्यान झियाय - ध्याता था -- धर्मध्यान करता था ।
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मूलार्थ - उस समय केसरी उद्यान में, स्वाध्याय ध्यान से युक्त परम avat एक अनगार धर्मध्यान कर रहा था ।