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अष्टादशाध्ययनम्]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-उस वन में एक परम तपस्वी अनगार-साधु स्वाध्यायध्यान से युक्त होकर धर्मध्यान कर रहा था। इस कथन से केसरोद्यान में मुनि के निवास और मुनिवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है । वास्तव में मुनिवृत्ति का उद्देश्य तपस्वी होना, स्वाध्याय और ध्यान से युक्त होना ही है। इसके विपरीत जो लोग साधु बनकर विकथा में निमग्न स्वाध्याय ध्यान से रहित होते हुए धर्मध्यान को छोड़कर केवल आर्त और रौद्र ध्यान में निमग्न रहते हैं, वे मुनिवृत्ति के लक्ष्य से कोसों दूर हैं।
अप्फोवमण्डवम्मि , झायइ क्खवियासवे । तस्सागए मिगे पासं, वहेइ से नराहिवे ॥५॥ अफोवमण्डपे , ध्यायति क्षपितास्त्रवः । तस्यागतान् मृगान् पावं, विध्यति स नराधिपः ॥५॥
पदार्थान्वयः-अप्फोवमण्डवम्मि-द्राक्षा आदि लताओं के कुञ्ज में झायइध्यान करता है क्खवियासवे-क्षय किये हैं आश्रव जिसने तस्स-उसके पासं-समीप आगए-आये हुए मिगे-मृगों को वहेइ-मारता है से-वह नराहिवे-राजा।।
मूलार्थ—वह मुनि अफोव-द्राक्षा और नागवल्ली आदि लताओं के मण्डप के नीचे ध्यान कर रहा है। उसने आश्रवों का क्षय कर दिया है। ऐसे उस मुनि के समीप आये हुए मृगों को उस राजा ने मारा ।
टीका-प्रस्तुत गाथा में मुनि का ध्यानस्थान और उसकी आत्मशुद्धि का प्रसंगवश दिग्दर्शन कराया गया है । आत्मध्यान के लिए कितना विविक्त और शान्त स्थान होना चाहिए, यह इसमें भली भाँति वर्णित है । 'अफोव' शब्द 'वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न' स्थान का बोधक है। यहाँ 'ध्यायति' क्रिया का दो वार प्रयोग करना ध्यान की निरन्तरता-सततचिन्तन-का सूचक है।
इसके बाद फिर क्या हुआ, अब इसी विषय में कहते हैंअह आसगओ राया, खिप्पमागम्म सो तहिं। हए मिए उ पासित्ता, अणगारं तत्थ पासई ॥६॥