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सप्तदशाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः – जे - जो वज्जए-वर्जता है एए कहे हुए उक्त दोसे-दोषों को सया - सदैव से - वह सुव्वए - सुत्रत होइ - होता है मुखीण मज्झे -मुनियों के मध्य में अयंसि - इस लोए-लोक में अमयं व-अमृत की भाँति पूइए - पूजित है आराहएआराधन कर लेता है इणं-इस लोगम् - लोक को तहा - तथा पर-परलोक को उवितर्के । त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
मूलार्थ - जो साधु उक्त दोषों को त्याग देता है, वह मुनियों के मध्य में सुन्दर व्रत वाला होता है और लोक में अमृत के समान पूजनीय – अभिलषणीय हो जाता है तथा इस प्रकार वह दोनों लोकों को आराधन कर लेता है ।
टीका - इस गाथा में, जिस साधु ने उक्त दोषों का परित्याग कर दिया है उसके गुणों का वर्णन है अर्थात् उक्त दोषों के त्याग का फल प्रतिपादन किया गया है । तात्पर्य - उक्त दोषों से रहित पुरुष सदा के लिए भाव मुनियों की कोटि में गिना जाता है तथा निरतिचार चारित्र का आराधक होने से लोक में वह अमृत के समान वाञ्छनीय होता है अर्थात् जैसे अमृत सब को प्रिय है, उसी प्रकार वह भी सब को श्रद्धेय होता है तथा परलोक में सद्गति का भाजन होने से वहाँ भी पूज्य है । इस प्रकार वह दोनों लोकों का आराधक बन जाता है । इससे प्रमाणित हुआ कि विचारशील साधु को उक्त दोषों के त्याग और सद्गुणों के धारण करने में ही सदा प्रयत्नशील होना चाहिए, जिससे कि आत्मशुद्धि के द्वारा उसका दुर्लभ मनुष्यजन्म सदा के लिए सफल हो जाय ।
इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' का अर्थ पहले की तरह ही जान लेना ।
सप्तदशाध्ययन समाप्त |