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________________ ७२० ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ सप्तदशाध्ययनम् SOAPaperwome owwwwwwwwwwwwwwwwwwww. टीका-इस प्रकार साधु, जो कि पार्श्वस्थ, उशन्न, कुशील, संसक्त और स्वच्छन्द इन पाँच प्रकार के कुशीलों का अनुसरण करने वाला, संवर से रहितआस्रव का निरोध न करने वाला, और मुनि का मुखवत्रिका और रजोहरण आदि जो वेष है, उसको जिसने धारण कर रक्खा है परन्तु प्रधान मुनियों के संयमस्थान से अधोवर्ती अर्थात् जघन्य संयमस्थान के धरने वाला केवल वेषधारी मात्र है, ( वह ) इस लोक में विष के समान गर्हित है-निन्दा के योग्य है । तात्पर्य कि जैसे संसार में विष निन्दनीय—त्याज्य समझा जाता है, उसी प्रकार उसकी भी लोगों में निन्दा होती है। इस प्रकार वह न तो इस लोक का रहा और न उसका परलोक ही सुधरा किन्तु दोनों से ही भ्रष्ट हो गया । सारांश कि यह लोक और परलोक ये दोनों, गुणों के उपार्जन से ही सुधरा करते हैं, केवल वेषमात्र धारण कर लेने से नहीं। .. इस प्रकार इन पूर्वोक्त दोषों के सेवन करने का फल बतलाकर अब उनके त्याग का जो फल है, उसका वर्णन करते हैं जे वजए एए सया उ दोसे, - से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। अयंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥२१॥ त्ति बेमि। इति पावसमणिकं सत्तदहं अज्झयणं समत्तं ॥१७॥ यो वर्जयेदेतान् सदा तु दोषान्, स सुव्रतो भवति मुनीनां मध्ये । अस्मिंल्लोकेऽमृतमिव पूजितः, आराधयति लोकमिमं तथा परम् ॥२१॥ इति ब्रवीमि। इति पापश्रमणीयं सप्तदशमध्ययनं समाप्तम् ॥१७॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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