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उत्तराध्ययनसूत्रम्
| सप्तदशाध्ययनम्
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और यदि किसी भव्य साधु ने उसे कहा कि 'आयुष्मन् ! इस प्रकार सदा आहार की ही लालसा नहीं रखनी चाहिए और न इस तरह वार वार आहार करना चाहिए । यह साधु का आचार नहीं है । साधु को तो मनुष्यजन्म, श्रुति, श्रद्धा और संयम में वीर्य-इन चारों अंगों की दुर्लभता का विचार करते हुए अधिकतया तप कर्म के अनुष्ठान में ही पुरुषार्थ करना चाहिए' । गुरुजनों की इस उपदेशपूर्ण प्रेरणा का वह उत्तर देता है कि 'आप तो परोपदेश में ही पंडित हो । यदि आपको ये उक्त चारों अंग दुर्लभ प्रतीत होते हैं तो आप ही किसी विकट तपस्या के अनुष्ठान में लग जाओ ? मेरे प्रति कहने की आपको क्या आवश्यकता है ?' इस प्रकार का बर्ताव करने वाला पापश्रमण कहलाता है । किसी के मत में 'अत्यन्तम्मि'— 'अस्तमयति' इसका, प्रतिदिन आहार करता है—यह अर्थ भी है । तात्पर्य कि तपश्चर्या के दिनों में भी आहार का त्याग नहीं करता किन्तु निरन्तर खाता ही रहता है । इससे सिद्ध हुआ कि संयमशील साधु को कभी २ मर्यादित आहार का भी त्याग करना चाहिए ताकि उसे तप कर्म उपार्जन करने का भी अवसर प्राप्त होता रहे।
अब फिर कहते हैंआयरियपरिच्चाई , परपासण्डसेवए । गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१७॥ आचार्यपरित्यागी , परपाषण्डसेवकः . । गाणंगणिको दुर्भूतः, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१७॥
पदार्थान्वयः-आयरिय-आचार्य के परिच्चाई-त्याग करने वाला परपासण्डपरपाषंड के सेवए-सेवन करने वाला गाणंगणिए-छः २ मास में गच्छ संक्रमण करने वाला दुब्भूए-निन्दित पावसमणि त्ति-पापश्रमण वुच्चई-कहा जाता है।
मूलार्थ-आचार्य का परित्याग करने वाला और परपाखंड का सेवन करने वाला तथा छः मास के अनन्तर ही गच्छ का परिवर्तन करने वाला पापश्रमण होता है। . .. टीका-कोई निकृष्ट साधु इस बात का विचार करता है कि ये आचार्य सदैव तप करने का ही उपदेश करते रहते हैं तथा आहार आदि में जो कुछ सुन्दर