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________________ ७१६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् | सप्तदशाध्ययनम् vvvvvvvvv और यदि किसी भव्य साधु ने उसे कहा कि 'आयुष्मन् ! इस प्रकार सदा आहार की ही लालसा नहीं रखनी चाहिए और न इस तरह वार वार आहार करना चाहिए । यह साधु का आचार नहीं है । साधु को तो मनुष्यजन्म, श्रुति, श्रद्धा और संयम में वीर्य-इन चारों अंगों की दुर्लभता का विचार करते हुए अधिकतया तप कर्म के अनुष्ठान में ही पुरुषार्थ करना चाहिए' । गुरुजनों की इस उपदेशपूर्ण प्रेरणा का वह उत्तर देता है कि 'आप तो परोपदेश में ही पंडित हो । यदि आपको ये उक्त चारों अंग दुर्लभ प्रतीत होते हैं तो आप ही किसी विकट तपस्या के अनुष्ठान में लग जाओ ? मेरे प्रति कहने की आपको क्या आवश्यकता है ?' इस प्रकार का बर्ताव करने वाला पापश्रमण कहलाता है । किसी के मत में 'अत्यन्तम्मि'— 'अस्तमयति' इसका, प्रतिदिन आहार करता है—यह अर्थ भी है । तात्पर्य कि तपश्चर्या के दिनों में भी आहार का त्याग नहीं करता किन्तु निरन्तर खाता ही रहता है । इससे सिद्ध हुआ कि संयमशील साधु को कभी २ मर्यादित आहार का भी त्याग करना चाहिए ताकि उसे तप कर्म उपार्जन करने का भी अवसर प्राप्त होता रहे। अब फिर कहते हैंआयरियपरिच्चाई , परपासण्डसेवए । गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१७॥ आचार्यपरित्यागी , परपाषण्डसेवकः . । गाणंगणिको दुर्भूतः, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१७॥ पदार्थान्वयः-आयरिय-आचार्य के परिच्चाई-त्याग करने वाला परपासण्डपरपाषंड के सेवए-सेवन करने वाला गाणंगणिए-छः २ मास में गच्छ संक्रमण करने वाला दुब्भूए-निन्दित पावसमणि त्ति-पापश्रमण वुच्चई-कहा जाता है। मूलार्थ-आचार्य का परित्याग करने वाला और परपाखंड का सेवन करने वाला तथा छः मास के अनन्तर ही गच्छ का परिवर्तन करने वाला पापश्रमण होता है। . .. टीका-कोई निकृष्ट साधु इस बात का विचार करता है कि ये आचार्य सदैव तप करने का ही उपदेश करते रहते हैं तथा आहार आदि में जो कुछ सुन्दर
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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