SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ७१७ पदार्थ आता है, वह बाल, वृद्ध और ग्लानादि को दे दिया जाता है। इसलिए इनका त्याग करके जो पाखण्डी कहे जाते हैं, उन्ही में चले जाना अच्छा है । क्योंकि वहाँ पर खाने पीने की भी अधिक सुविधा है और तपस्या का भी टंटा नहीं। इस विचार से वह साधु आचार्य का परित्याग कर देता है और पाखंड का अनुयायी बन जाता है । इस हेतु से उसको पापश्रमण कहते हैं । एवं शास्त्र में लिखा है कि नूतन शिष्य की छः मास तक विशेष सेवा–सार संभाल—करनी चाहिए । इसी मर्यादा को ध्यान में रखकर अपनी सेवा के निमित्त जो साधु छः मास के अनन्तर ही गच्छ का परिवर्तन कर देता है अर्थात् एक गच्छ को छोड़कर दूसरे गच्छ में चला जाता है, वह भी पापश्रमण है । क्योंकि इन उक्त दोनों ही प्रकार के विचारों में स्वार्थ और आचारशून्यता की ही अधिक मात्रा विद्यमान है । वेष से तो यद्यपि वह श्रमण ही दिखाई देता है परन्तु मन उसका दुराचार की ओर ही प्रवृत्त हो रहा है। इससे उसको पापश्रमण कहते हैं। इसी प्रकार वीर्याचार से जो रहित है, वह भी पापश्रमण है । अब इसी विषय का प्रतिपादन किया जाता है सयं गेहं परिच्चज, परगेहंसि वावरे । निमित्तेण य ववहरई, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१८॥ खकीयं गृहं परित्यज्य, परगृहे व्याप्रियते । . . निमित्तेन व्यवहरति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१८॥ ___ पदार्थान्वयः-संय-अपना घर परिच्चज-छोड़कर परगेहंसि-पर घरों में वावरे-आहार के लिए जाकर उनका कार्य करे य-और निमित्तेण-शुभाशुभ निमित्त से ववहरई-व्यवहार करता है पावसमणि त्ति-पापश्रमण इस प्रकार वुच्चईकहा जाता है। मूलार्थ-जो अपना घर छोड़कर पर घरों में जाकर उनका काम करता है और निमित्त से-शुभाशुभ बतलाकर व्यवहार करता है, वह पापश्रमण कहलाता है । टीका-जो साधु अपना घर छोड़कर अर्थात् दीक्षाग्रहण करके भिक्षा के लिए दूसरों के घरों में जाकर उनका काम करने लगता है अथवा भिक्षा देने वाले
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy