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________________ सप्तदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७१५ मूलार्थ-जो दुग्ध और दधि रूप विकृतियों का वार २ आहार करता है और तप कर्म में जिसकी प्रीति नहीं, वह पापश्रमण है। टीका-दुग्ध, दधि और घृत आदि पदार्थों को विकृति कहते हैं क्योंकि ये विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं । अतः जो साधु इन विकृतियों को छोड़ने के बदले इनका वार वार सेवन करता है परन्तु तपकर्म के अनुष्ठान में अरुचि रखता है, तात्पर्य कि दुग्ध, घृत आदि बलप्रद पदार्थों के खाने में तो सब से आगे हो जाता है और जब तपस्या करने का समय उपस्थित होता है तब पीछे हट जाता है, वह पापश्रमण कहलाता है । यहाँ पर विकृति शब्द से उन्हीं पदार्थों का ग्रहण अभीष्ट है, जो कि अपने पहले पर्याय को छोड़कर दूसरे पर्याय को प्राप्त हो गये हैं। जैसे—दुग्ध, दधि आदि । वे ही पदार्थ यदि प्रमाण से अधिक सेवन किये जायें तो विकार को उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं। इसलिए ये विकृति के नाम से प्रसिद्ध हैं । संयमशील साधु को इनका निरन्तर सेवन करना योग्य नहीं, यही इस गाथा का सारांश है। . अब फिर इसी विषय की चर्चा करते हैं अत्यन्तम्मि य सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१६॥ अस्तमयति च सूर्ये, आहारयत्यभीक्ष्णम् । चोदितः प्रतिचोदयति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१६॥ पदार्थान्वयः-अत्यन्तम्मि-अस्त होने तक सूरम्मि-सूर्य के य-पादपूर्ति में है अभिक्खणं-वार वार आहारेइ-आहार करता है चोइओ-प्रेरणा करने पर पडिचोएइ-प्रेरणा करने वाले को प्रत्युत्तर देता है पावसमणि ति-पापश्रमण इस प्रकार वुचई-कहा जाता है। . मूलार्थ—जो सूर्य के अस्त होने तक निरन्तर आहार करता है, और प्रेरणा करने वाले पर आक्षेप करता है, वह पापश्रमण कहा जाता है । टीका-जो साधु सूर्योदय से लेकर संध्या समय तक बराबर खाने में ही लगा रहता है, अथवा जिसका मन सदैव आहार का ही चिन्तन करता रहता है,
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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