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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ सप्तदशाध्ययनम्
पदार्थान्वयः—ससरक्खपाए - रज से भरे हुए पाँव होने पर भी सुबई - सो जाता है से - शय्या को न पडिले हई - प्रतिलेखन नहीं करता संथारए - संस्तारक पर अणा उत्ते - उपयोगशून्य होकर सोता वा बैठता है पात्रसमणि त्ति- - पापश्रमण इस प्रकार - कहा जाता है ।
मूलार्थ - रज से भरे हुए पाँव होने पर भी जो उसी तरह सो जाता है और शय्या की प्रतिलेखना भी नहीं करता तथा संस्तारक पर विना ही उपयोग जो बैठता अथवा सोता है, वह पापश्रमण कहलाता है ।
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टीका - जो साधु पाँव साफ किये विना ही अपने विस्तरे पर बैठता अथवा सोता है एवं शय्या आदि की प्रतिलेखमा वा प्रमार्जना भी नहीं करता तथा कम्बलादि के संस्तारक — बिछौने पर अनुपयुक्त होकर - आगम विधि की अवहेलना करके सोता है, वह पापश्रमण कहा जाता है। क्योंकि शास्त्रों में साधु के लिए कुकुड़ी की तरह चारों ओर से अपने आपको समेटकर शयन करने का विधान है । इस पूर्वोक्त सारे कथन से सिद्ध होता है कि साधु जिस वसति में रहे, उसकी वह यत्नपूर्वक प्रतिलेखना और प्रमार्जना करे तथा शय्या पर सोते अथवा बैठते समय उसके पाँव में किसी प्रकार की धूलि अथवा कीचड़ न लगा हो और शयन भी उसका आगमोक्त विधि के अनुसार होना चाहिए | क्योंकि शास्त्रमर्यादापूर्वक यत्न से आचरण करने पर ही संयम का सम्यक् रूप से पालन हो सकता है अन्यथा नहीं ।
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इस प्रकार चारित्र को लेकर पापश्रमण के स्वरूप का वर्णन हुआ। अब आचार के अतिक्रमण करने से जिस प्रकार पापश्रमण होता है, उसका उल्लेख करते हैं
दुदहीविगईओ, आहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे, पावसमणि त्ति चई ||१५|| दुग्धदधिविकृती आहारयत्यभीक्ष्णम् I तपःकर्मणि, पापभ्रमण इत्युच्यते ॥१५॥
अरतश्च
पदार्थान्वयः – दुद्ध - दुग्ध दही-दधि विगईओ-जो विकृति हैं उनका आहार - आहार करता है अभिक्खणं-वार वार अरए - रतिरहित य - और तवोकम्मे - तप:कर्म में पावसमणि त्ति - पापश्रमण, इस प्रकार वुई - कहा जाता है ।
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