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________________ मायालयाला सप्तदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७१३ अथिरासणे कुकुइए, जत्थ तत्थ निसीयई। आसणम्मि अणाउत्ते, पावसमणि त्ति वुचई ॥१३॥ अस्थिरासनः कुत्कुचः, यत्र तत्र निषीदति । आसनेऽनायुक्तः , पापश्रमण इत्युच्यते ॥१३॥ पदार्थान्वयः-अथिरासणे-अस्थिरासन कुकुइए-कुचेष्टायुक्त जत्थ-जहाँ तत्थ-तहाँ निसीयई-बैठ जाता है आसणम्मि-आसन में अणाउत्ते-उपयोग से रहित पावसमणि त्ति-पापश्रमण, इस प्रकार वुच्चई-कहा जाता है। ___मूलार्थ-जिसका आसन स्थिर नहीं, जो कुचेष्टा से युक्त है, और जहाँ तहाँ बैठ जाता है तथा जो आसन पर बैठते समय उपयोग नहीं रखता, वह पापश्रमण कहलाता है। टीका-जो साधु अपने आसन पर स्थिरतापूर्वक नहीं बैठता और यदि बैठता है तो भी अनेक प्रकार की जीवविराधक कुचेष्टाएँ करता है, और जहाँ तहाँ अर्थात् सचित्त अचित्त का कुछ भी विचार न करता हुआ बैठ जाता है एवं आसन पर बैठते समय भी उपयोग से शून्य है, तात्पर्य कि वह यह विचार बिलकुल नहीं करता कि मेरे पाँव आदि सचित्त रज अथवा कीचड़ आदि से युक्त हैं वा नहीं, इत्यादि लक्षणों वाला जो साधु है, वह पापश्रमण कहा जाता है । इसके विपरीत जो विचारशील साधु है, उसका आसन स्थिर होगा तथा शरीर से किसी प्रकार की कुचेष्टा नहीं होगी और विना यत्न के जहाँ तहाँ हर एक स्थान पर उसका बैठना न होगा एवं आसन पर भी वह उपयोगपूर्वक ही बैठेगा । इसलिए पापश्रमणता के कारणभूत उक्त लक्षणों को योग्य साधु कभी अंगीकार न करे। अब फिर पूर्वोक्त विषय में कहते हैंससरक्खपाए सुवई, सेजं न पडिलेहई। संथारए अणाउत्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१४॥ सरजस्कपादः खपिति, शय्यां न प्रतिलेखयति । संस्तारकेऽनायुक्तः , पापश्रमण इत्युच्यते ॥१४॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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