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________________ ७१२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् दशाध्ययनम् वाला पापश्रमण होता है । यहाँ पर इतना और समझ लेना चाहिए कि प्रीति से ही मनुष्य में संविभागित्व आता है और तभी वह बाल, वृद्ध और ग्लान आदि की सेवा में प्रवृत्त होता है । अत: जो साधु अपने में प्रीति गुण को नहीं रखता, वह आत्मपोषक, उद्धत और लोभी बनता हुआ पापश्रमण हो जाता है । ____ अब फिर इसी विषय को पल्लवित किया जाता हैविवायं च उदीरेइ, अधम्मे अत्तपन्नहा । वुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१२॥ विवाद चोदीरयति, अधर्म आत्मप्रज्ञाहा। व्युद्ग्रहे कलहे रक्तः, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१२॥ पदार्थान्वयः-विवायं-विवाद को च-और उदीरेइ-उदीरता है अधम्मे.. सदाचार से रहित है अत्तपन्नहा-आत्म-आप्त-प्रज्ञा को हनन करता है बुग्गहेयुद्ध में कलहे-कलह में रत्ते-रत है पावसमणि त्ति-पापश्रमण इस प्रकार वुचईकहा जाता । मूलार्थ-विवाद की उदीरणा करने वाला, सदाचार से रहित और आप्तप्रज्ञा-आत्मप्रज्ञा-की हानि करने वाला पापश्रमण कहा जाता है। टीका-जो विवाद शान्त हो चुका हो उसको फिर से उत्पन्न करने वाला और सदाचार से रहित जो साधु है, उसे पापश्रमण कहते हैं । अत्तपन्नहायदि किसी आत्मा को आप्त पुरुषों के उपदेश से इस लोक तथा परलोक के निर्णय की बुद्धि प्राप्त हो गई तो उसको जो अपने कुतर्कजाल से हनन करने वाला हो, वह पापश्रमण है । अथवा आत्मप्रश्नहा-आत्मविषयक प्रश्नों का नाश करने वाला। आत्मा के अस्तित्व और उसके परलोकगमनसम्बन्धी तथ्य विचारों का विघात करने वाला पापश्रमण है । एवं जो दंडादि से युद्ध करने और वाणी के द्वारा कलह करने में प्रवृत्त है, वह पापश्रमण है । इसके अतिरिक्त "अत्तपन्नहा" का आत्मप्रज्ञाप्त प्रतिरूप बनाकर उसकी आत्मप्रज्ञा-स्वकीय बुद्धि का विनाश करने वाला अर्थ भी युक्तिसंगत है। तात्पर्य कि जो कुतर्कों के द्वारा अपनी बुद्धि को मलिन किये हुए है, वह पापश्रमण है । और भी कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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