SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तदशाध्ययनम्-] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ७२१ टीका-इस गाथा में यह बतलाया गया है कि जो साधु प्रतिलेखना में प्रमाद करता है अर्थात् सावधानता से नहीं करता तथा उसी काल में कुछ विकथा आदि को सुनकर चित्त को विक्षिप्त कर लेता है और जब गुरुओं ने कहा कि वत्स ! प्रमादरहित होकर काम करो, इस क्रिया में और कोई कार्य नहीं करना चाहिए तब उसी समय उनका तिरस्कार करने लग जाता है और कहता है कि इसमें मेरा क्या दोष है, आपने जैसा सिखलाया है वैसा करता हूँ, यदि यह ठीक नहीं तो आप स्वयं कर लो ? मैं तो इसी प्रकार करूँगा। कहीं २ पर "गुरुं परिभासए निच्चंगुरुपरिभाषको नित्यम्” ऐसा पाठ भी है । तब इसका यह अर्थ होगा कि सदैव गुरुजनों के सामने बोलने वाला अर्थात् असभ्य बर्ताव करने वाला अथवा उनकी शिक्षा को विपरीत समझने वाला। अब फिर उक्त विषय में ही कहते हैंबहुमाई ‘पमुहरी, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अवियसे, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥११॥ बहुमायी प्रमुखरः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः । असंविभाग्यप्रीतिकः , पापश्रमण इत्युच्यते ॥११॥ ___पदार्थान्वयः-बहुमाई-बहुत छल करने वाला पमुहरी-विना सम्बन्ध प्रलाप करने वाला थद्धे-अहंकारी लुद्धे-लोभी अणिग्गहे-इन्द्रियों के पराधीन असंविभागीसमविभाग न करने वाला अवियत्ते-प्रीति न करने वाला पावसमणि त्ति-पापश्रमण इस प्रकार वुच्चई-कहा जाता है। - मूलार्थ-छल करने वाला, विना विचारे बोलने वाला, अहंकारी, लोभी, इन्द्रियों को वश में न रखने वाला, और समविभाग न करने तथा प्रीति न करने वाला पापश्रमण कहा जाता है । टीका-इस गाथा में भी पापश्रमण के लक्षणों का वर्णन है। जैसे कि छल कपट करना, असम्बद्ध प्रलाप करना, मन में अहंकार और लोभ रखना, इन्द्रियों के वशीभूत होना, वृद्ध और ग्लान आदि से प्रेम न रखना और लाये हुए आहार का उनके साथ समविभाग न करना—ये सब पापश्रमण के लक्षण हैं अर्थात् इन लक्षणों
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy