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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[सप्तदशाध्ययनम्
अपने को संयत मानता है, वह पापश्रमण है । क्योंकि वह ईर्याविषय में सर्वथा विवेकरहित हो रहा है और जीवों के संमर्दन से उसका हृदय दया से शून्य हो रहा है । वास्तव में साधु की मुख्यपरीक्षा उसके चलने से ही की जाती है। जब कि चलने में ही उसे विवेक नहीं तो उसके अन्य कार्य भी विवेकशून्य ही होंगे। तथा जिस प्रकार बीजादि के विषय में कहा गया है उसी प्रकार पृथिवीकाय, अपकाय, तेजस्काय
और वायुकाय के विषय में भी जान लेना चाहिए । यहाँ गाथा में आये हुए "सम्ममाणे"-संमर्दन शब्द का तात्पर्य अतिनिर्दयपन की सूचना करना है।
अब फिर इसी विषय में कहते हैंसंथारं फलगं पीढं, निसिज्जं पायकम्बलं।
अप्पमज्जियमारुहई, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥७॥ संस्तारं फलकं पीठं, निषद्यां पादकम्बलम् । अप्रमृज्यारोहति , पापश्रमण इत्युच्यते ॥७॥
पदार्थान्वयः-संथारं-कम्बलादि फलगं-पट्टादि पीढं-आसन निसिजंस्वाध्यायभूम्यादि पायकम्बलं-पादपुंछन अप्पमज्जियं-विना प्रमार्जन किये जो आरुहई-आरोहण करता है-बैठता है, वह पावसमणि त्ति-पापश्रमण इस प्रकार वुचई-कहा जाता है।
- मूलार्थ-संस्तारक, फलक, पीठ, पादपुंछन और स्वाध्याय भूमि, इन पर जो विना प्रमार्जन किये बैठता है, वह पापश्रमण कहा जाता है ।
टीका-इस गाथा में यह बतलाया है कि विना प्रमार्जन किये जो किसी वस्तु पर बैठना अथवा किसी वस्तु को उठाना है, यह भी असंयम का ही कारण है। अतः इस प्रकार का आचरण करने वाला भी पापश्रमण ही कहा जाता है । जैसे कि कम्बल आदि संस्तारक, चम्पक आदि फलक, पीठादि आसन, स्वाध्याय भूमि आदि निषद्या और पादपुंछन इत्यादि उपकरणों को विना प्रमार्जन किये उपयोग में लाने वाला पापश्रमण है क्योंकि प्रमार्जन किये विना इन उपकरणों का उपयोग करते समय यदि इन पर कोई जीव चढ़ा हुआ हो तो उसकी हिंसा हो जाने की संभावना है, तथा प्रमाद के बढ़ने का भी इससे भय रहता है, जो कि संयम का विघातक है ।